Book Title: Dharm aur Uske Dhyey ki Pariksha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 2
________________ धर्म और उसके ध्येय की परीक्षा ानेका संभव हो वहाँ वैसी समालोचना के सामने कानून और पुलिस जेलका द्वार बतानेके लिए खड़ी रहती है। यह सत्य है कि धर्मकी परीक्षाको सद्भाग्य से ऐसा मय नहीं है । इसके भयस्थान दूसरी ही तरह के हैं। परीक्षक में पूरी विचार-शक्ति न हो, निष्पक्षता रखने का पूरा बल न हो, और फिर उसकी परीक्षाका उचित मूल्य आँक सकनेवाले श्रोता न हों, तो यह परीक्षाका भयस्थान समझा जायगा । धर्म जैते सुक्ष्म और विवादग्रस्त विषय की परीक्षाका मुख्य भय-स्थान तो स्वार्थ है । अगर कोई स्वार्थ की सिद्धि के लिए या स्वार्थकी हानि के भय से प्रेरित होकर धर्मकी मीमांसा शुरू करे, तो वह उसकी परीक्षा के प्रति न्याय नहीं कर सकेगा । इसलए इस विषय में हाथ डालते समय मनुष्य को सब तरफ से यथाशक्य सावधानी रखना अनिवार्य है अगर वह अपने विचारोंका कुछ भी मूल्य समझता है तो । सबकी सगुणपोषक भावना - धर्मका समूल ध्वंस करने के इच्छुक रूसी साम्यवादियोंसे यदि पूछा जाय कि क्या तुम दया, सत्य, संतोष, त्याग, प्रेम और क्षमा आदि गुणोंका नाश चाहते हो, तो वे क्या जवाब देंगे ? साम्यवादियोंका कट्टरसे कट्टर विरोधी भी इस बातको सिद्ध नहीं कर सकता कि वे उपर्युक्त गुणोंका विनाश करना चाहते हैं और दूसरी तरफ धर्मप्राण कहलानेवाले धार्मिक सज्जनोंसे किसी भी पथके अनुयायियों से पूछा जाय कि क्या वे असत्य, दम्भ, क्रोध, हिंसा, अनाचार आदि गुणों का घोषण करना चाहते हैं या सत्य मैत्री वगैरह सद्गुणों का पोषण करना चाहते है, तो मेरी धारणा है कि वे यही जवाब देंगे कि वे एक भी दुर्गुणका पक्ष नहीं करते बल्कि सभी सद्गुणोंका पोषण चाहते हैं । साथ ही साथ उन साम्यवादियों से भी उक्त दुर्गुणों के विषय में पूछ लिया जाय तो ठीक होगा । कोई भी यह नहीं कहेगा कि साम्यवादी भी दुर्गुणों का पोषण करना चाहते हैं या वे उसीके लिए सब योजना करते हैं । - यदि धार्मिक कहलानेवाले कट्टरपन्थी और धर्मोच्छेदक माने जानेवाले साम्यवादी दोनों ही सद्गुणोंका पोषण करने और दुर्गुणोंको दूर करने के विषय में एकमत हैं और सामान्य रूपसे सद्गुणोंमें गिने जानेवाले गुणों और दुर्गुणों में गिने जानेवाले दोषोंके विषय में भी दोनों में Jain Education International ३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19