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धर्म और समाज
अब हमे यह देखना है कि व्यवहार में कर्मवादी चार्वाकपन्थीकी अपेक्षा कितना ऊँचा जीवन बिताता है और अपने संसारको कितना अधिक सुन्दर और कितना अधिक भव्य बनाना या रचना जानता है ।
પ્રશ્ન
यों में एक पक्ष दूसरेको चाहे जो कहे, उसको कोई नहीं रोक सकता । किन्तु सिर्फ कहने मात्र से कोई अपना बड़ापन साबित नहीं कर सकता । बड़े छोटेको जाँच तो जीवन हो होती है | चार्वाक पन्थी तुच्छ दृष्टिको लेकर परलोक नहीं मानते जिससे वे अपनी आत्मिक जबाबदारी और सामाजिक जबाबदारीसे भ्रष्ट रहकर सिर्फ अपने ऐहिक सुखकी संकीर्ण लालसा में एक दूसरे के प्रतिकी सामाजिक जबाबदारियाँ अदा नहीं करते | उससे व्यवहार लँगड़ा हो जाता है । ऐसा हो सकता है कि चापंथी जहाँ अपने अनुकूल हो, वहाँ दूसरोंसे सहायता ले ले, मा-वापकी विरासत पचा ले और म्युनिसिपैलिटीकी सामग्रीको भोगने में जरा भी पीछे नहीं रहें, सामाजिक या राजकीय लाभका लेशमात्र भी त्याग न करे । परन्तु जब उन्हीं मान्बापोंके पालने पोषनेका सवाल आवे तब उपेक्षाका आश्रय ले ले । म्युनिसिपालटी के किसी नियसका पालन अपने सिग्पर आ जाय तब चाहे जिस बहानेसे निकल जाय । सामाजिक या राष्ट्रीय आपत्ति समय कुछ कर्त्तव्य प्राप्त होनेपर पेट दुखनेका बहाना करके पाठशाला से बच निकलने-बाले बालककी तरह, किसी न किसी रोतिसे छुटकारा पा जाय और इस तरह अपनी चार्बीक दृष्टिसे कौटुम्बिक, सामाजिक, राजकीय सारे जीवनको लँगड़ा बनानेका पाप करता रहे। यह है उसकी चाकताका दुष्परिणाम |
अब अपने पर-लोक वादी आस्तिक कहनेवाले और अपने आपको बहुत श्रेष्ठ माननेवाले वर्गकी तरफ ध्यान दीजिए। अगर कर्म-वादी भी अपनी कौटुम्बिक, सामाजिक और राजकीय सारी जिम्मेदारियोंसे छूटता दिखाई पड़े, तो उसमें और चाबी में क्या अन्तर रहा ? व्यवहार तो दोनोंन ही बिगाड़ा | हम देखते हैं कि कुछ खुदमतलबी अपने आपको खुल्लमखुल्ला चार्वाक कहकर प्राप्त हुई जिम्मेदारियों के प्रति सर्वथा दुर्लक्ष करते हैं । पर साथ ही हम देखते हैं कि कर्मवादी भी प्राप्त जबाबदारियोंके प्रति उतनी ही उपेक्षा बतातें है । बुद्धिसे परलोकवाद स्वीकार करनेपर भी और वाणी से उसका उच्चारण करनेपर भी उनमें
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