Book Title: Dharm aur Uske Dhyey ki Pariksha
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

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Page 17
________________ धर्म और समाज देखते हैं | गृहस्थोंकी ही बात नहीं, त्यागी गिने-जानेवाले धर्मगुरुओं में भी कर्त्तव्य पालनके नामपर शून्य है । तत्र चार्वाक धर्म या उसके ध्येयको स्वीकार करनेसे जो परिणाम उपस्थित होता है वही परिणाम परलोकको धर्मका ध्येय मानने से भी नहीं हुआ, ऐसा कोई कैसे कह सकता है ? यदि ऐसा न होता तो हमारे दीर्घदर्शी गिने जानेवाले परलोकवादी समाज में आमिक, कौटुम्बिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जबाबदारियोंके ज्ञानका अभाव न होता । ટ चाहे कर्ज लेकर भी घी पीने की मान्यता रखनेवाले प्रत्यक्षवादी स्वसुखबादी चार्वाक हो चाहे परलोकवादी आस्तिक हों, यदि उन दोनों में कर्तव्य की योग्य समझ, जवाबदारीका आत्म-भान और पुरुषार्थकी जागृति जैसे तच्च न हों, तो दोनों के धर्मध्येय सम्बन्धी बादमें चाहे कितना ही अन्तर हो, उन दोनों के जीवन में या वे जिस समाज के अंग है, उस समाज के जीवन में कोई अन्तर नही पड़ता | बल्कि ऐसा होता है कि परलोकवादी तो दूसरेके जीवनको बिगाड़ने के अलावा अपना जीवन भी विगाड़ लेता है, जब कि चाकपन्थी अधिक नहीं तो अपने वर्तमान जीवनका तो थोड़ा सुख साव लेता है । इसके विपरीत अगर चार्वाक-पंथी और परलोकवादी दोनों में कर्तव्य की योग्य समझ, जवाबदारीका भान और पुरुषार्थकी जागृति बराबर बराबर हो, तो चार्वाककी अपेक्षा परलोकवादीका विश्व अधिक संपूर्ण होने की या परलोकवादीकी अपेक्षा चार्वाकपन्थीकी दुनिया के निम्न होनेकी कोई संभावना नहीं है। धर्मका ध्येय क्या हो ? ध्येय चाहे जो हो, जिनमें कर्तव्य और जवाबदारीका भान और पुरुपार्थकी जागृति अधिक है, वे हो दूसरोंकी अपेक्षा अपना और अपने समाज या राष्ट्रका जीवन अधिक समृद्ध या सुखी बनानेवाले है । कर्तव्य और जवाबदारीके भान वाले और पुरुषार्थकी जागृतिवाले चार्वाक सदृश लोग भी दूसरे पक्ष के समाज या राष्ट्र के जीवन की बनिस्बत अपने समाज और राष्ट्रका जीवन खूब अच्छा बना लेते हैं, इसके प्रमाण हमारे सामने हैं। इसलिए धर्मके ध्येय रूपमें परलोकवाद, कर्मवाद, या आत्मवाद दूसरे वार्दोकी अपेक्षा अधिक संपूर्ण या बढ़ा हुआ है, ऐसा हम किसी भी तरहसे साबित नहीं कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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