Book Title: Dharm aur Uske Dhyey ki Pariksha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 7
________________ धर्म और समाज इस तरह ऐसा कोई भी वैयक्तिक, सामाजिक या सार्वजनिक नियम, आचार, प्रथा या रीति-रिवाज नहीं है, जिसके विषय में कोई समझदार प्रामाणिक मनुष्य ऐसा कह सके कि अमुक व्यवहार तीनों कालों में सबके लिए एक ही तरीकेसे शुभनिष्ठापूर्वक होना और अमुक व्यवहार अशुभनिष्ठापूर्वक होना ही संभव है। परिणामसे ही बाह्य व्यवहारको धर्म मानना चाहिए इतने विचारके बाद हम अपने निश्चयकी प्रथम भूमिकापर आ पहुँचते हैं कि कोई भी बाह्य व्रत-नियम आचार-विचार या रीति-रिवाज ऐसा नहीं है जो सबके लिए, समाजके लिए या एक व्यक्ति के लिए हमेशा धर्मरूप या अधर्मरूप ही कहा जा सके। इस प्रकारके व्यावहारिक गिने जानेवाले धर्मो की धार्मिकता या अधार्मिकता सिर्फ उन नियमों के पालन करनेवालेकी निष्ठा और प्रामाणिक बुद्धिके ऊपर अवलंबित है। शुभ निष्ठासे किसीका प्राण बचानेके लिए उसपर होनेवाले शस्त्राघातको रोका जा सकता है और इससे भी ज्यादा शुभ निष्ठासे दूसरे वक्त उसके ऊपर वही शस्त्र चलाया जा सकता है। अशुम निष्ठासे किसीके ऊपर शस्त्र चलानेकी बात तो जानी हुई है, पर इससे भी ज्यादा अशुभ निष्ठासे उसके पालन और पोषण करनेवाले भी होते हैं । सिंह और सर्प जैसे जीवों को पाल कर उनकी स्वतंत्रताके हरणसे आजीविका करनेवालोंको कौन नहीं जानता ? परन्तु इससे भी ज्यादा अशुभ निष्ठासे लड़कियों को पालन पोषण कर उनकी पवित्रताका बलिदान करके आजीविका करनेवाले लोग भी आज संस्कृत गिने जानेवाले समाजमें सुरक्षित हैं | इन सबसे सूचित यही होता है कि कोई भी व्यावहारिक बाह्य क्रियाकाण्ड सिर्फ इस लिए कि बहुतसे लोग उसका आचरण करते हैं, धर्म नहीं कहा जा सकता या उसको दूसरे लोग नहीं मानते या आचारमें नहीं लाते या उसका विरोध करते हैं, तो इन्हीं कारणोंसे वह अधर्म नहीं कहा जा सकता। बहुत-से लोग कहते हैं कि बहुत दफा व्रत, नियम, क्रिया-काण्ड आदि शुभनिष्ठा से उत्पन्न न होने पर भी अभ्यासके बलसे शुभनिष्ठा उत्पन्न करने में कारण हो सकते हैं । इस लिए परिणामकी दृष्टि से बाह्य व्यवहारको धर्म मानना चाहिए । इसका उत्तर मुश्किल नहीं है । कोई भी बाह्य व्यवहार ऐसा नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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