Book Title: Dharm aur Uske Dhyey ki Pariksha Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf View full book textPage 9
________________ ४० धर्म और समाज हो जानेपर उन लोगोंका जो कष्ट है वह दूर हो जायगा और उसके स्थानपर सत्य दर्शनका आनन्द प्राप्त होगा। देव, गुरू, धर्म तत्व जैन परम्पसके अनुसार तात्त्विक धर्म तीन तत्त्वोंमें समाया हुआ है -- देव, गुरु और धर्म । आत्माको संपूर्ण निर्दोष अवस्थाका नाम देव तत्त्व, उस निर्दोषताको प्राप्त करनेको सच्ची आध्यात्मिक साधना गुरु तत्व और सब तरह के विवेकपूर्ण यथार्थ संयम का नाम धर्म तत्व । इन तीन तत्वों को जैनत्वकी आत्मा कहना चाहिए । इन तत्वों की रक्षा करनेवाली और पोषण करने वाली भावनाको उसका शरीर कहना चाहिए । देवतत्वको स्थूल रूप प्रदान करनेवाले मन्दिर, उनके अन्दरकी मूलियाँ, उनकी पूजा-आरती और उक्का संस्थाके निर्वाह के लिए आमदनी के साधन, उसकी व्यवस्थापक पेढ़ियाँ. तीर्थस्थान, ये सब देवतत्वका पोषक भावना-रूप शरीरके वस्त्र और अलंकार हैं। इसी प्रकार मकान, खान-पान रहन-सहन आदिके नियम तथा दूसरे प्रकार के विधि-विधान ये सब गुरुतत्त्वरूप शरीरके वस्त्र और अलंकार हैं । अमुक चीज़ न खानी, अमुक ही खानी, अमुक प्रमाणमै खाना, अमुक वक्त नहीं खाना, अमुक स्थानमें रहना, अमुक के प्रति अमुक रीतिसे ही व्यवहार करना, इत्यादि विधिनिषेधके नियम संयम तत्वके शरीरके कपड़े और जेवर हैं । आत्मा, शरीर और उसके अंग आत्माके बसने, काम करने और विकसित होनेके लिए शरीरकी सहायता 'अनिवार्य होती है। शरीरके विना वह कोई व्यवहार सिद्ध नहीं कर सकता । कपड़े शरीरकी रक्षा करते हैं और अलंकार उसकी शोभा बढ़ाते हैं, परन्तु ध्यान -रखना चाहिए कि एक ही आस्मा होते हुए भी उसके अनादि जीवनम शरीर एक नहीं होता । वह प्रतिश्चग बदलता रहता है। अगर इस बातको छोड़ भी दिया जाय, तो भी पुराने शरीरका त्याग और नये शरीरकी स्वीकृति सांसारिक आत्म-जीवन में अनिवार्य है। कपड़े शरीरकी रक्षा करते हैं, परन्तु यह एकान्त सत्य नहीं है। बहुत-बार कपड़े उलटे शरीरकी विकृतिका कारण होनेसे ब्याज्य हो जाते हैं और जब रक्षा करते हैं तब भी शरीर के ऊपर वे एक जैसे नहीं रहते । शरीरके प्रमाणसे छोटे बड़े करने और बदलने पड़ते हैं । अवसर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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