Book Title: Dhammakahanuogo
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 10
________________ ॥ अहम् ॥ अनुयोग की व्याख्या और ऐतिहासिक पर्यवेक्षण अनुयोग का तात्पर्य है-शब्दों का अभिधेय के साथ योग-संबंध, बता देना, अथवा प्राकृत शब्द "अणुजोग" में "अणु" का अर्थ सूत्र है क्योंकि व्याख्या की अपेक्षा से सूत्र 'अणु' होता है, उस अणु-सूत्र का अभिधेय के साथ योग करना 'अणुजोग' है। तात्पर्य यह है कि जैन आगमों की व्याख्या को अणुजोग (अनुयोग) कहा जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में अनुयोग किस पद्धति से करना? यह विस्तार से निर्दिष्ट है और उसका निरूपण विस्तार से 'महावीर विद्यालय द्वारा प्रकाशित' नंदि-अनुयोगद्वार सूत्र की प्रस्तावना में किया गया है अतएव यहाँ विस्तार से लिखना आवश्यक नहीं है। जिज्ञासु वहीं से देख लें। धर्मकथानुयोग आदि अनुयोग चार प्रकार के हैं यह बात सर्वप्रथम आवश्यक नियुक्ति से ज्ञात होती है और उसका स्पष्टीकरण सर्वप्रथम विशेषावश्यक भाष्य में किया गया है। वेदों की व्याख्या के विषय में प्रश्न उपस्थित हुआ था कि उनकी व्याख्या ऐतिहासिक दृष्टि से, आध्यात्मिक दृष्टि से या केवल क्रियाकाण्ड की दृष्टि से की जाय ? प्रश्न इसलिए उपस्थित हुआ था कि वेदों को मीमांसकों ने अपौरुषेय अर्थात् नित्य माना है अतएव उनका तात्पर्य यह है कि जिन इन्द्रादि का, जिन घटनाओं का और जिन जातियों का उल्लेख वेदों में आता है-उनका संबंध किसी काल से जोड़ने पर वेदों को नित्य मानने में बाधा उपस्थित होगी, अतएव माना गया कि वेदों को व्याख्या इतिहास परक न की जाय । मीमांसकों ने वेदों की व्याख्या केवल विधिवादपरक करना माना है अर्थात् किस समय क्या करना उपयुक्त है, वेद इसी का उपदेश देते हैं। अध्यात्मवादियों ने वेदों की व्याख्या अध्यात्मपरक और आज के वैज्ञानिक युग में उनकी व्याख्यायें इतिहासपरक की जाने लगी है। जैनागमों को श्री नन्दीसूत्र में ध्रुव और नित्य कहा हैयथा इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं ण कयाइ णाऽऽसी ण कयाइ ण भवति। ण कयाइ ण भविस्सइ। भुवि च भवति य भविस्सति य धुवे, णिअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अव्वट्ठिए, णिच्चे। यही पाठ समवायांग सूत्र में भी उपलब्ध है। __ नंदी की टीका में श्री मलयगिरि ने आगमान्तर्गत इतिहास से संबद्ध व्यक्तियों के विषय में आगमों की नित्यता के साथ संगति बिठाने का कोई प्रयत्न नहीं किया है और चूर्णिकार ने भी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। समवायांग मूल में जहाँ आगमों को नित्य बताया गया है वहाँ उसकी टीका में भी श्री अभयदेव सूरि ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है, अतः इस विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जैनागमों को जो ध्रुव एवं नित्य आदि कहा है वह भरत-ऐरावतादि क्षेत्रों की अपेक्षा से नहीं किन्तु पंच महाविदेह क्षेत्रों की अपेक्षा से कहा है क्योंकि वहाँ यहाँ के समान अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी आदि काल विभाग नहीं है अपितु वहाँ सदा समान काल रहता है। अंग आगमों में अशाश्वत ग्राम नगर व्यक्ति आदि के नामों में तो परिवर्तन होता रहता है किन्तु जीवादि शाश्वत पदार्थों के नाम ध्रुव हैं अतः वे सदा अपरिवर्तित रहते हैं। उनकी अपेक्षा से ही पंच महाविदेहों में गणिपिटक नित्य है। अनुयोगों के अनुसार व्याख्या करने पर नयों का भी प्रयोग करना आवश्यक माना जाता था किन्तु अनुयोगों का पार्थक्य होने पर वह वैकल्पिक हो गया अर्थात् अनुयोगों का पार्थक्य होने पर किसी एक अनुयोग द्वारा, किसी एक सूत्र की व्याख्या की जाने पर शेष तीन अनुयोगों का प्रयोग नहीं होता था और नयों का प्रयोग भी श्रोता की बुद्धि-शक्ति देखकर किया जाता था। १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २७५० ला० द. २. नंदिसुत्तं-११८, महावीर विद्यालय, बम्बई। ३. समवाय २२७, सुत्तागमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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