Book Title: Dhammakahanuogo
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 11
________________ (4) अनुयोगों का पार्थक्य कब से हुआ ? इसका स्पष्टीकरण निर्युक्ति में है । प्राचीनकाल में नय विचारणा किस सूत्र में है और किस में नहीं है— इसकी चर्चा करते हुए आवश्यक नियुक्ति में कहा है- तात्पर्य यह है कि दृष्टिवाद नामक अंग के सूत्रों की व्याख्या करते समय सातों नयों से विचार किया जाता था किन्तु कालिक श्रुतों की व्याख्या में सातों नयों की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी और केवल तीन नयों से काम लिया जाता था । "एते हि दिट्ठियाते परूवणा सुत्त अत्थकथना य 1 इहपुण अणभुवगमो, अधिकारो तीहि उस्सणं ॥ इस नियुक्ति की व्याख्या करते हुए भाष्यकार जिनभद्र ने स्पष्टीकरण किया है कि लोक में तीन नय प्रायः उपयोगी है और उनका ही उपयोग कालिक श्रुत की व्याख्या में करना चाहिए । वे तीन हैं- १. नैगम, २ संग्रह, ३. व्यवहार । २ एक और कालिकश्रुत की व्याख्या में सातों नयों की आवश्यकता नहीं है-- ऐसा कहा और पुनः कहा कि तीन नयों का प्रयोग किया जा सकता है इसकी संगति बताते हुए नियुक्तिकार ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है । " सूत्र और अर्थ किसी न किसी नय के अन्तर्गत आ जाता है । कोई भी ऐसा सूत्र नहीं है जो नय विहीन हो । अतएव श्रोता की प्रज्ञा को देखकर नयविशारद नयों का प्रयोग कर सकता है वह चाहे तो सातों नयों का प्रयोग भी कर सकता है। नयों का प्रयोग करके सूत्रों की व्याख्या करना जरूरी मानकर भी यह स्पष्ट किया गया कि कालिक श्रुत में नयों का प्रयोग करना आवश्यक नहीं है--इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए आवश्यक निर्युक्ति में कहा गया है कि कालिक श्रुत मूढ़नयिक है अर्थात् उसमें नयों का समवतार होता नहीं है साथ ही यह स्पष्ट किया गया है कि अनुयोग का जब तक पृथक्करण नहीं था तब तक प्रत्येक सूत्र की व्याख्या में चारों अनुयोगों का प्रयोग होता था । किन्तु अनुयोग का पृथक्करण होने पर चारों का प्रयोग नहीं किया गया। १, अनुयोग का पृथक्करण किस रूप में हुआ ? इसका स्पष्टीकरण यह है कि अनुयोग चार प्रकार का है-१. चरणानुयोग २. धम्माणुयोग (धम्मकहाणुयोग ) ३. संखाणुयोग ( गणितानुयोग ) ४. द्रव्यानुयोग । * अनुयोगों का पृथककरण किस आचार्य ने किया उसकी चर्चा करते हुए आवश्यक नियुक्ति में स्पष्टीकरण है कि आर्यवश जो तधरों में अपश्चिम थे उनके शिष्य आरक्षितसूरि ने यह पृथक्करण किया है- "दिदिएहि महाणुभावेहि रहि । जुगमासज्ज विभतो अणुओगो तो कभी चउड़ा ।। महाभाग आयरक्षित ने जो देवेन्द्रों द्वारा वंदित थे। समय को देखकर अनुयोगों का चार विभाग में पृथक्करण किया । किस रूप में वह पृथक्करण किया गया इसका स्पष्टीकरण मूल भाष्यकार जिनभद्र ने किया है क - आवश्यक, निर्युक्ति गाथा. ५४५ । ख - विशेषावश्यक भाष्य- २७५०-२७५४ । विशेषावश्यक भाष्य गाथा-२७४७ । Jain Education International २. ३. क - आवश्यक नियुक्ति गाथा ५४४ । ख- विशेषावश्यक भाष्य गाथा, २७४८-२७४९ । ४. क- आवश्यक नियुक्ति गाथा, ५४५ । ख- विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २७५० । ५. विशेषावश्यक भाष्य गाथा २७५२ । ६. आवश्यक नियुक्ति गाथा ७६९ । ७. आवश्यक निर्युक्ति गाथा ७७४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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