Book Title: Dhammakahanuogo
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 13
________________ (१०) संकलनकर्ता का संकल्प : पं. जगदीशचन्द्र जैन शोधनिबन्धों के सिद्धहस्त लेखक हैं । उनके अनेक निबंध-ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं । जिनका वाचन करके अनेक स्वाध्यायशील पाठकों ने अपने ज्ञानकोष को समृद्ध किया है। धर्मकथानुयोग की भूमिका उन्होंने अंग्रेजी में लिखी है। उसमें धर्मकथाओं के सभी पहलुओं का समीक्षात्मक चिन्तन मनन प्रस्तुत किया है। फिर भी यहाँ लिखने का प्रयास किया जा रहा है। आशा है स्वाध्यायशील साधक हेय, ज्ञेय उपादेय को त्रिपदी के त्रिनेत्र से इन धर्मकथाओंके आलोक में अपने आदर्श जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष दर्शन कर सकेंगे। - धर्मकथाओं के पाठक तथा श्रोता दो वर्गों में विभाजित हैं--एक वर्ग है श्रद्धालु साधकों का और दुसरा वर्ग है चिन्तनमननशील विद्वज्जनों का। - प्रथम वर्ग तर्क-वितर्क से सदा विरक्त रहता है। वह वर्ग श्रमण या श्रमणियों का हो तथा श्रावक या श्राविकाओं का हो। यह वर्ग धर्मकथाओं को मर्वज्ञ भाषित मानता है। उनका आदर्श मंत्र है:-"तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पवेइयं," जिन भगवान् ने जो कहा है वही सत्य है एवं संशयरहित है। द्वितीय वर्ग; धर्मकथा के प्रमुख आदर्श भाव को ही महत्व देता है। उस वर्ग की दृष्टि में धर्मकथा के पात्र, पात्रों के नाम और उनके साथ घटित होने वाली घटनाएँ कल्पित हों या वास्तविक । पात्रों के आचरण उनके आदर्श जीवन के अनुरूप हों या प्रतिरूप, उनकी महत्वाकांक्षायें धार्मिक सिद्धान्तों के अविरुद्ध हो या विरुद्ध । उक्त वर्ग के व्यक्ति इन बातों पर ध्यान देना उचित ही नहीं मानते हैं। उनका सिद्धान्त है--"विवेगे धम्ममाहिए"। "धर्म विवेक में कहा गया है। कथा का भाव धर्म आराधना के लिए या आसक्ति की समाप्ति के लिए कितना प्रेरक है? धर्मकथाओं के कौन-कौन से अंश हेय, ज्ञेय या उपादेय हैं ? साधक स्वयं यह सोचे कि इन धर्मकथाओं से मैंने क्या ग्रहण किया है। और इनसे मेरे जीवन में कितना परिवर्तन आया है? मैंने प्रमत्तभाव का कितना परित्याग किया है और अप्रमत्त भाव को कितना अपनाया है ? विषय कषायों से विरक्त होकर संयम में मैं कितना अनुरक्त हुआ हुँ ? उक्त वर्ग प्रभात से पूर्व प्रमाद छोड़कर धर्म जागरण के लिए स्वयं को इस प्रकार संबोधित करता रहता है यथा--कि मे कडं किं च किच्च सेसं, कि सक्कणिज्जं न समायरामि । कि मे परो पासइ कि व अप्पा, कि वाहं खलियं न विवज्जयामि ॥ धर्मकथानयोग की संकलन पद्धतिधर्मकथानुयोग के आगम : १. ज्ञाताधर्मकथा २. उपासकदशा ३. अन्तकृद्दशा ४. अनुत्तरोपपातिकदशा ५. विपाकश्रुत ६. राजप्रश्नीय ७. निरयावलिका-कल्पिका ८. कल्पावतंसिका ९. पुष्पिका १०. पुष्पचूलिका ११. वृष्णिदशा। उपरोक्त ग्यारह आगमों में केवल धर्मकथानुयोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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