Book Title: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Author(s): Jyoti Prasad Jain Publisher: Darbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti View full book textPage 8
________________ प्रकाशकीय देश, समाज और संस्कृतिके क्षेत्रमें कार्य करने वालोंका सर्वत्र आदर और सम्मान किया जाता है । भारतवर्षकी तो यह बहुत प्राचीन परम्परा । देशको स्वाधीनताके लिए जिन्होंने कार्य किया वे जीवित या स्वर्गवासी हो गये हों, उन सबका देशकी जनताने श्रद्धापूर्वक सम्मान किया है । उनके नामसे संस्थाएँ, संघ और नगर - उपनगर बनाकर उनके प्रति समादर व्यक्त किया है। और यह 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' की उक्ति के अनुसार कृतज्ञता ज्ञापनका एक प्रकार है । स्वाधीनतामें योग देने वाले सेनानियोंका शासनने भी सम्मान किया और कर रहा है । भावी पीढ़ीके लोगों के लिए यह उत्साहवर्द्धक एवं प्रशस्य है । 'भारतरत्न, 'पद्म विभूषण, 'पद्मश्रा' जैसी सम्मानसूचक उपाधियोंसे भी उन्हें सम्मानित किया गया और किया जाता है । समाजकी अनन्य सेवा करने वालोंका भी समाज समादर करती है। गाँधीजीने समाजके पिछड़े, अनु सूचित आदि वर्गोंकी जो सेवा की उसे भुलाया नहीं जा सकता । अतएव जनताने उन्हें 'महात्मा' की सर्वोच्च उपाधि देकर अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त की है । मदनमोहन मालवीयको उनकी समाज सेवाके उपलक्ष्य में 'महामना' कहकर उसने उनके प्रति अपने हृदयोंकी श्रद्धा उड़ेल दी है । जैन समाजने भी अपने सेवकोंको ऐसी ही उपाधियोंसे विभूषित किया है। सर सेठ हुकमचन्दजी, साहू शान्तिप्रसादजी आदि समाजसेवियोंको समाजने अनेक उपाधियां देकर उनका बहुमान किया है । संस्कृति के क्षेत्र में जिन्होंने जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा, पूजोत्सव, विद्या संस्थाओंकी संस्थापना, श्रुत-सेवा, गुरुसेवा, साहित्य-सृजन प्रचार-प्रसार आदिके भव्य कार्य किये या कर रहे हैं उनका भी समाजने सदा समादर किया है । गुरु गोपालदास वरैयाको ज्ञान प्रचार और शास्त्रार्थों द्वारा जिन धर्मकी प्रभावनास्वरूप 'वादीभ - गजकेसरी' जैसे पदोंसे समाजने भूषित किया था । पूज्य मुनि विद्यानन्द महाराजको उनके प्रभावक तत्त्वावधान में सम्पन्न दो महान् अद्वितीय उत्सवों - भ० महावीरका २५००वाँ निर्वाणोत्सव और भ० गोम्मटेश बाहुबली का सहस्राब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में सारे राष्ट्रकी जैन समाजने 'एलाचार्य' और 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' की उपाधियोंसे उसी प्रकार विभूषित किया, जिस प्रकार गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रको गंगनरेश राचमल्लके प्रधानमंत्री एवं प्रधानसेनापति चामुण्डराय सहित तत्कालीन समाजने 'सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि अलंकृत किया था । यह सब भावी सांस्कृतिक कार्यों में उत्साहपूर्वक कार्य करने वालोंको प्रोत्साहन देने के लिए आवश्यक है । इससे स्वस्थ परम्परा बनती है । यों तो किसी भी अच्छी चीजका सदुपयोग और और दुरुपयोग दोनों हो सकते हैं । उद्भट विद्वान् हैं, जिन्होंने जैन साहित्यके उन अंशोंको नहीं हुए थे या विवादग्रस्त थे । उनमें 'मोक्षमार्गस्य उन्होंने अपने पुष्ट - प्रमाण युक्त एवं शोधपूर्ण निबन्धों डॉक्टर कोठिया ऐसे साहित्य सेवी और उजागर किया है, जो उनके समय तक उजागर नेतारम्' इस मंगल श्लोकपर विद्वानोंमें विवाद था। द्वारा स्पष्टतः सिद्ध कर दिया कि उक्त मंगल श्लोक स्वयं तत्वार्थ सूत्रकार का है और उनके तत्त्वार्थ सूत्र से ही पूज्यपादाचार्य ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में लिया है। इसी प्रकार आचार्य विद्यानन्द, आचार्य माणिक्यनन्द, अभिनव धर्मभूषण आदि कितने ही अछूते ग्रन्थकरों - आचार्योंका उन्होंने विद्वत्समाज एवं अन्य पाठकों को ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत किया है, जो न केवल अपूर्व एवं नया है अपितु सप्रमाण एवं शोधपूर्ण है और जिसे विद्वानोंने भी प्रमाणरूप में मान लिया है। Jain Education International ३ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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