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प्रथम खण्डका छात्र था । मैंने श्री महावीर दि० जैन संस्कृत पाठशाला सादूमलके सहपाठी सोंरई निवासी आनन्दकुमार हजारीलाल जैन छात्रसहोदरोंके साथ पण्डित कोठियाजी के दुर्गाकुण्ड स्थित निवासपर सर्वप्रथम दर्शन किये थे । सन् १९६३ में मैंने पूर्व मध्यमा पास किया । विद्यालयके तत्कालीन संविधान के अनुसार पूर्व मध्यमाके बाद छात्रोंको इण्टर कालेजों में प्रवेश लेनेकी छूट थी । मेरे वर्गसहपाठी धर्मराज सेठ्ठी ( वर्तमान में मूडबिद्रीके चारुकीर्तिजी महाराज) सनातन धर्म इण्टर कालेज, वाराणसी में प्रवेश ले चुके थे । मैं आर्थिक साधनों के अभाव के कारण इच्छुक होते हुए भी प्रवेश नहीं ले सका था। पण्डित कोठियाजीको श्री धर्मराज सेट्ठीसे मेरे प्रवेश न लेनेकी बात ज्ञात होनेपर उन्होंने मुझे बुलाकर प्रवेश न लेनेका कारण पूछा। मैंने संकोचबस बतलाया कि अर्थाभाव है । पंडितजीने सौ रुपया देकर प्रवेश लेनेके लिए प्रेरित किया । इस प्रकार पण्डितजीने मुझे आधुनिक विद्यार्जनके लिए सन्मार्ग दिखाया। इसके पश्चात् पण्डितजीने मेरी आर्थिक स्थिति से भली-भाँति पूर्वक अवगत होकर दिल्ली के दो ट्रस्टोंसे छात्रवृत्ति दिलाकर उच्च अध्ययन करनेके लिए प्रोत्साहित किया । इस प्रकार मेरी उच्च शिक्षा प्राप्ति में पूज्य पण्डितजीका बहुत बड़ा चिरस्मरणीय योगदान रहा है
पूज्य पण्डित कोठियाजी मेरे शुभचिन्तक, संरक्षक, पथप्रदर्शकके साथ-साथ विद्यागुरु भी हैं । उन्हीं की सत्प्रेरणा से मैं जैन दर्शन शास्त्राचार्यकी कक्षा में उनका शिष्य रहा । पूज्य गुरुवर कोठियाजीकी अध्यापन-शैली सरल और सुबोध है। इस लिए उनके शिष्य होनेका मुझे गौरव है । वर्णी- ग्रन्थमाला के मंत्रीकी हैसियत से संस्तुति कर पी-एच० डी० के लिए बम्बईके एक ट्रष्टसे भी छात्रवृत्ति दिलाई।
परम पूज्य पं० कोठियाजीका मुझे वात्सल्यस्नेह प्राप्त हुआ है। हर संकटके समय मेरे लिए व प्रकाशपुंज सिद्ध हुए हैं । पूज्य गुरुवर के अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण के अवसरपर आज मैं उनका शत-शत अभिनन्दन करते हुए हर्ष-विभोर हो रहा हूँ ।
ज्ञाननिधि एवं वात्सल्यकोश डॉ० कोठिया
• डॉ० प्रेमसुमन जैन, एम० ए०, पी-एच० डी०, उदयपुर (राज० )
श्रद्धेय डा० दरबारीलालजी कोठियासे मुझे पितृतुल्य वात्सल्य मिला है । बनारस में जब मैं अध्ययन कर रहा था तब डा० कोठियाजी मेरे स्थानीय संरक्षक थे। उनके नामका उल्लेख जब मैं अपने आवेदनपत्रोंउसे सुधारनेके लिए कहते कि
में स्थानीय संरक्षक के स्थानपर करता, तब कार्यालयके बाबू लोग प्रायः एक ही नाम पिता और स्थानीय संरक्षकके स्थानपर नहीं भरा जा सकता । तब मुझे उन्हें समझाना पड़ता कि मेरे पिताजीका नाम भी दरबारीलाल है और स्थानीय संरक्षक भी मुझे दरबारीलाल मिले हैं । अन्तर मात्र इतना है कि एक साधारण गृहस्थ ओर छोटे से गाँव में व्यापारी हैं, जबकि दूसरे विद्वान् जगत् के प्रसिद्ध मनीषी हैं ।
पण्डित कोठियाजी छात्रोंके लिए सहज उपलब्ध सहायक रहे हैं । उनके पास जब भी मैं अथवा मेरे सहपाठी किसी भी समस्याको लेकर गये, उन्होंने तत्काल उसका समाधान किया। हम जैसे साधनहीन विद्यार्थियों को पण्डितजीने सहारा देकर दिलाकर विद्यार्जनके मार्ग से कभी डिगने नहीं दिया उन्होंने सही अर्थों में सम्यग्दर्शनके वात्सल्य आदि अंगोंका पालन किया है। हम जैसे सैकड़ों विद्यार्थी पंडितजीकी विद्या-सन्तानके रूपमें उन्हें स्मरण करते हैं, करते रहेंगे ।
शान्तिनिकेतन विद्यालय कटनी, स्याद्वाद महाविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके श्रद्धेय गुरुजनों विद्यादानसे जो कुछ सीखा-समझा उसका परिष्कार पं० कोठियाजोके कुशल हाथों ही हुआ है । यद्यपि वे मेरे साक्षात् शिक्षागुरु नहीं थे, किन्तु अतिरिक्त समय में उन्होंने मुझे बहुत कुछ सीख दी है । वह
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