Book Title: Chinta ke Vividh Ayam Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 8
________________ 'स्व' स्वभाव रूपी जल में स्नान करता है उस समय उसे निर्वाण मोक्षधाम की प्राप्ति होती है। 0 इष्ट व अनिष्ट वस्तुओं में समता भाव अगर नहीं रहेगा तो ध्यान की शुद्धि नहीं हो सकती। इसलिए योगी को समभाव रखना ही उचित है । यदि वह समभावपूर्वक ध्यान करेगा तो वास्तव मे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। परभाव से मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती। O जैसे समुद्र में फैके हुए रत्न का हाथ आना मुश्किल है वैसे ही मनुष्य जन्म भी अत्यन्त दुर्लभ है। तिर्यन्च पर्याय से निकल कर अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त करके भी यह जीव मिथ्यादृष्टि होकर पाप का अर्जन करता है। हे योगी! उत्कृष्ट मनुष्य पर्याय प्राप्त होने के बाद तू मन लगाकर इष्ट और अनिष्ट वस्तु की ममता को छोड़कर समता भाव की आराधना कर, तभी मोक्ष की प्राप्ति हो सकता है। बिना समता के करोड़ वर्ष तू तप भी करेगा तो भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए तू समभाव का अभ्यास करके इस संसार रूपी कारागार से मुक्त होने की चेष्टा कर। वीतरागी, ज्ञानी, योगी मन में विचार करके अपने आत्म-स्वरूप से च्युत नहीं होता। वह अपने समता रूपी खड्ग के द्वारा कमों की निर्जरा करके अखण्ड शुद्धात्मा के सुख की प्राप्ति कर लेता है । जो ज्ञानी पुरुष धर्म में एकाग्र मन रहता है और इन्द्रियों के विषयों का अनुभव नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषयों का कभी सेवन नहीं करता, संसार, शरीर और भोगो से उदासीन रहता है उसी ज्ञानी को धर्म-ध्यान होता है । जहाँ तुझ धर्म-ध्यान में बाधा आती है; जिस जगह तेरे मन में विकार आता है; अप्रसन्नता होती है, ऐसे स्थान को छोडकर एकान्तवासी बन । तूं घर-परिवार वगैरह की चिन्ता करता हुआ मोक्ष कभी नहीं पा सकता । अतः उत्तम तप का ही बारम्बार चिन्तन कर, क्योंकि तप से ही तू श्रेष्ठ माक्ष सुख को पा सकेगा। ममता ही दुःखा को बढ़ान बाली है व ममता का त्याग ही मुक्तिरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कराने वाला है। अब यह मानव जन्म पाया है तो शरीर में व शरीर के भीतर इन्द्रिया म ममता की जाएगीता कर्मों का ऐसा बन्ध होगा जिसस इस जीव को नरक निगोद आदि गतियों में जाकर दुःखों को बढ़ावा मिलगा । फिर मानव जन्म का मिलना ही दुष्कर हो जायगा। यह मानव बुद्धिमानी से क्षणभगुर व अपवित्र शरीर पर ममत्व न करे और अपनी आत्मा के स्वरूप को पहचान कर उसका ध्यान करे तो इसी जन्म में मोक्ष की अनुपम सम्पदा को पा सकता है। 0 जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होता तब तक जीव यह मेरा और यह तेरा है ऐसा रागद्वेषादि मोह भाव रखता है। वैराग्य होने के बाद यह राग और मोह भाव बिल्कुल नष्ट हो जाता है । जब तक अपने अन्दर ही वैराग्य उत्पन्न नहीं होता; तब तक बाह्य विषय में ही सन्तोष मानता है । अपने को आप जानने के बाद विषय सुख में सन्तोष नहीं होता। हे आत्मन् ! जब तक तू पंचेन्द्रिय विषय सुख को दूर नहीं करता तब तक तुझे अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । यदि तू आत्मानन्द को प्राप्त करना चाहता है तो तुझे अतीन्द्रिय सुख का सेवन करना ही उचित है । 0 सुगन्ध या दुर्गन्ध—ये दोनों तेरे ज्ञान रूप नहीं हैं । ये दोनों जड़ और चेतन रहित हैं। तू उनके प्रति राग और द्वष के द्वारा अशुभ पाप का बन्ध करता है । तू अपने शरीर के अन्दर अनादिकाल से कर्मों के अन्दर दबे हुए निर्गन्ध आत्मानन्द की सुगन्ध का अनुभव क्यों नहीं करता? हे जीव ! तू अगर कल्याण चाहता है तो बाहरी रूप-रंग के प्रति जो तेरा ममत्व भाव है, रागद्वेष है, उसको त्याग दे। अपने अन्दर स्थित शुद्धात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा कर। हे अज्ञानी जीव ! मनुष्य पर्याय में इसका त्याग नहीं करेगा तो किस पर्याय में करेगा? अब तू इसे छोड़कर साधु के असली रूप को धारण कर । तभी तू तीन लोक में चमकेगा। ८) हे योगी! षट्रस के स्वाद को छोड़कर अनादिकाल से अपने अन्दर ही रहने वाली आत्मा के रस का स्वाद ले। तेरी आत्मा में अनन्त ज्ञानमय आनंदामृत के रस का भडार भरा पड़ा है । तू आप अपने रस का स्वादी होकर बाहर की विषयवासना को उत्पन्न करने वाले रस को छोड़। . D यह अज्ञानी जीव अनादिकाल से बार-बार पंचेन्द्रिय विषयभोग को भोगता आ रहा है। इस तरह विषयभोग में आसक्त होकर यह आत्मा मलिन बनकर निद्य गति को प्राप्त होता है । जब तक यह जीव इन्द्रिय विषय में इस प्रकार फंसा रहेगा तब तक इस जीव को आत्मा के स्वरूप की पहचान नहीं होगी। . .. जो सम्यग्दर्शन के सन्मुख हैं, वे अनन्त सुख को पाते हैं। जो जीव सम्यक्त्व रहित हैं वे यदि पुण्य भी करते हैं तो उस आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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