Book Title: Chinta ke Vividh Ayam
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 31
________________ 0 श्रावक धर्म कीर्ति-लक्ष्मी के कुच युगल के समान है, वाणी रूपी लक्ष्मी को सुन्दरता प्रदान करता है और जयलक्ष्मी को सुन्दर वस्त्र प्रदान करने वाला है / इस श्रावक धर्म का आचरण करने वाले दान, पूजा, शील, उपवास आदि में किसी प्रकार की मलिनता नहीं आने देते / श्रावक धर्म सुव्रतों की वृद्धि कर दृढ़ आचरण द्वारा संसार-सागर से पार होने के लिए जहाज के समान है। वह दुश्शंकितरूपी चोर को आने का अवकाश नहीं देता, दुराचार रूपी तरंगों से बचाकर, रागरूपी मगरों से रक्षा करता हुआ, संशयरूपी मच्छों को हटा कर धर्मरूपी जहाज को बचाने की चेष्टा करता है। जैसे घी को तपाती हुई स्त्री अपने उपयोग को इधर-उधर नहीं जाने देती, उसी प्रकार वह ध्यान द्वारा अपने उपयोग को इधर-उधर न जाने देकर कर्मों के नाश का प्रयत्न करता है। श्रावक को जिनागम का अभ्यास करते हुए अपने चरित्र में दृढ़ रहकर सदा कर्म के क्षय का उपाय करना चाहिए। C सर्प को तथा गाय को एक ही कुएं का पानी पिलाने पर सर्प के शरीर में जाकर वह जल विष बन जाता है और गाय के शरीर में जाकर वह दूध बन जाता है / पात्र और अपात्र भी इसी प्रकार हैं। अत: पात्र-अपात्र का विचार करके दान देना चाहिए। 0 अज्ञानी जगत् निर्ग्रन्थ स्वरूप को देखकर मन में उसका तिरस्कार करता है, किन्तु संसार में निर्ग्रन्थ स्वरूप ही सर्व-सम्मत श्रेष्ठ है / जिनेन्द्रदेव का स्वरूप निग्रन्थ है। यदि संसार की वस्तुओं को देखा जाय तो वे सभी निर्ग्रन्थ (अन्य पदार्थ के संसर्ग से रहित) हैं / निर्ग्रन्थ भाव के बिना कोई तपस्या नहीं हो सकती। निर्ग्रन्थ तपस्या ही इच्छित फल को देने वाली है। पृथ्वी तथा जन्म लेने वाला बालक, सूर्य, गाय, समुदाय, आकाश, हाथी, समुद्र, घोड़े, अग्नि, वृक्ष, पर्वत आदि लोक में जितने भी पदार्थ हैं, ये सभी निर्ग्रन्थ जिनेन्द्र की मुद्रांकित (नग्न) हैं, दूसरा कोई लांछन (चिह्न) उन पर नहीं है। सम्पूर्ण जगत् में भगवान का निर्ग्रन्थ लांछन (नग्नता का चिह्न) ही पाया जाता है / जगत् में नग्नत्व पूज्य है, आवरण पूज्य नहीं है। सूर्य का बिम्ब सदा नग्न रहता है, किसी से ढंका हुआ नहीं रहता / छोटे बालक नग्न रहते हैं। सन्तान-उत्पादन तथा सन्तान का जन्म नग्न ही होता है। मरण भी नग्न दशा में ही होता है / इस तरह नग्नत्व के बिना संसार में कोई वस्तु नहीं है। 0 आकाश में बादलों के पटल छाये होने के कारण चन्द्रमा का प्रकाश नहीं दीखता, प्रकाश दबा रहता है, इसी प्रकार अनादिकाल से कर्मावस्था से आच्छादित होने के कारण जीव का स्वरूप प्रकट नहीं होता। 0 समुद्र के किनारे खड़े हुए घुने हुए पेड़ को जिस प्रकार समुद्र की तरंगें उखाड़ कर ले जाती हैं, इन्द्रधनुष का रंग जैसे शाश्वत नहीं रहता, अनेक रंगों में बदल जाता है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय सुख भी शाश्वत नहीं है / ऐसा समझकर भी सद्धर्म को छोड़ने वाले जीव मूर्ख नहीं तो क्या हैं ? पागल की सन्तान, बादल की छाया, दोपहर के सूर्य की गर्मी, लोभी का धन, जैसे क्षणिक हैं, उसी प्रकार क्षणिक सम्पत्ति को जगत् में रहने वाले मनुष्य सचमुच में शाश्वत मानकर ग्रहण करते हैं और उसके निमित्त सद्धर्म को नष्ट कर डालते हैं / उन सब को मूर्ख अज्ञानी ही समझना चाहिये / जैनधर्म प्राणीमात्र का हितकारी है तथा तीन लोक में तिलक के समान है। संसार समुद्र से पार कराने वाला है / तीन लोक में पूजनीय है / देव और चक्रवर्ती के सुख को प्राप्त कराने वाला है। विद्याधरों के सुख को देने वाला है। उत्तम कुल का सुख देने चाला है / शील, संतोष और संयम को प्राप्त कराने वाला है / संसार-समुद्र से इस जीव को उठा कर अचल सिद्धों के सुखों में जाकर रखने वाला है / मोक्ष-लक्ष्मी को देने वाला है। अनेक प्रकार के सौभाग्य को प्राप्त कराने वाला है / चिन्तित वस्तु को देने वाला है / ऐसे 'धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। 0 सदा घर को स्वच्छ-शान्त रखने वाली, सद्विचार से काम करने वाली सती स्त्री को घर से निकाल कर घर को गन्दा रखने वाली, दुष्टविचार वाली स्त्री को लाकर घर में रखने वाले मूर्ख के समान सुख-शान्ति देने वाले सद्धर्म को ठुकराकर दुर्गति में ले जाने वाले पापयुक्त कुधर्म का सेवन करने वाला मनुष्य कभी दुखदायी संसार से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। 0 परस्त्री में आसक्त पुरुष को कहीं गति नहीं, उसे दया नहीं, बुद्धि नहीं, सुगति नहीं, मति नहीं, धृति नहीं। ऐसे मनुष्यों को जगत् में सज्जन पुरुषों का आश्रय नहीं मिलता, न उनका मान होता है। -अमृत-कण 111 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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