Book Title: Chinta ke Vividh Ayam Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 6
________________ वीर्यादिक अनन्त धर्म है। इसलिए यह नाशरहित द्रव्य है । यह जीव साधारण गुण सहित है और असाधारण गुण सहित भी है। विश्व रूप है, परन्तु विश्व में ठहरा नहीं है । सबसे उपेक्षा रखने वाला है तो भी सबको जानने वाला है । D जो आत्मा कर्म से बंधा हुआ है वही संसारी है । ससारी आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप से रहित है । आत्मा का स्वरूप शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन, शुद्ध वीर्य आदि अनन्त गुणात्मक है। इसलिए संसारी आत्मा असली स्वभाव का अनुमान नहीं करता है । जब यह दोष और आवरण मूल आत्मा से हट जाता है तब वही आत्मा निज शुद्ध रूप का अनुभव करने लगता है । जीवन-मरण में, लाभ-हानि में अनिष्ट वस्तुओं के संयोग में, इष्ट वस्तुओं के वियोग में, शत्रु और मित्र में, सुख और दुख 'आदि में समभाव रखना ही उत्तम तपस्या है। समभाव ही उत्तम चरित्र है । समभाव ही शुद्धात्मा है और समभाव ही समस्त कर्मों का नाश करने वाला है। हे आत्मन् ! तू संसार में समभाव के बिना विकार भाव को प्राप्त करके परिभ्रमण करता आया है। इसलिए अब तू पर-वस्तु के अवलम्ब को छोड़कर अपनी आत्मा का ही आश्रय ग्रहण कर । जब तक पर के आश्रित रहेंगा, तब तक तुझे इस शरीर के साथ सुख और शान्ति नहीं मिल सकती । परीषहों की तीव्र वेदना से दुःखित जिस समय तू परम उपशम भावना करेगा उस समय अर्ध क्षण मे तेरे समस्त अशुभ कर्म नष्ट हो जायेंगे | परीषह रूपी दावानल से संतप्त हुआ जीव जब निविकल्प हो ज्ञानरूपी शीतल स्वच्छ सरोवर में प्रवेश करता है और स्वभावरूपी जल में स्नान करता हैं, तब उस समय इसे निर्वाण, मोक्ष धाम की प्राप्ति होती है । आत्मन् ! यहां ससार रूपी शत्रु तब तक ही दुःख द सकता है जब तक तेरे भीतर ज्ञानरूपी ज्योति को नष्ट करने वाले कर्मबन्ध रूप दोष स्थान प्राप्त किय हैं। यह कर्मबन्ध रूप दोष राग और द्वेष के निमित्त से होता है। इसलिए मोक्ष सुख का अभिलाषी होकर तू सबसे पहले यथाशीघ्र यत्नपूर्वक उन दाषा को छोड़ द । पुण्य कर्म का उदय जब तक रहता है तभी तक विषय भोग टिकते हैं, नहीं तो वे पुण्य कर्म के खत्म होते ही रात्रि में कमल की तरह विलीन हो जाते हैं। आत्मा में उपज कर भी आत्मीय शुद्ध भावा से ये विषय सदा जुदा रहते हैं । अरे जाव! तू निरर्थक, दुःखदायक विषयों में फँसकर भौंरे की तरह प्राण क्यों गंवाता है । ये विषय भोगते समय तो कमल की तरह कोमल लगते हैं, पर जिस प्रकार कमल फेंस हुए भीरे को आखिर में मारकर छोड़ता है, उसी प्रकार ये विषय अपने में फँस हुए जीवों को अनेक बार प्राणान्त दुःख दन वाल ह । ह योगी ! अगर तुझे सच्चा आत्म-ज्ञान करना है तो अज्ञान के मार्ग को छोड़कर सुज्ञान मार्ग में प्रवेश कर । अज्ञान ही संसार के लिए कारण है। अज्ञान से अनेक प्रकार की निद्य गति में परिभ्रमण करना पड़ता है, जो हमेशा के लिए दुर्गति क. कारण है । यह शरीर क्षणभंगुर है व आधि-व्याधि तथा बुढ़ापे के दुःखों से परिपूर्ण है। तेरा निजात्मा अजर, अमर अव्याबाध व शाश्वत सुख का धाम है । फिर तू इस तुच्छ शरीर से प्रेम क्यों करता है । तू स्वतः सम्पूर्ण चराचर विषया को जान सकता है, परन्तु शरीर ने तुझ अत्यन्त अज्ञाना बना रखा है। जड़ के समान मूर्ति सराखा बना दिया है, बहुत मलिन कर दिया है । ह निर्बुद्धि, अज्ञानी बाहरात्मा जीव ! तू कितना मूर्ख है । तेरे पास अखंड, अविनाशी, अत्यन्त पवित्र परमात्म सुख स्वरूप निजात्मनिधि हान पर भी तू उसकी पहचान न करके क्षाणक तथा निरन्तर दुःख दने वाले मिथ्या मार्ग का अनुसरण करके अपनी सुबुद्धि से विमुख होता है । सुख इस जीव में जा शुभ और अशुभ कर्म का उदय हाता है वह सत्य और असत्य निमित्त से आता है। तब यह जीव उस को भागन वाला बन जाता है । और दुःख हयागी ! सत्पुरुषों पर कितना भी कष्ट का समय आ जाए या दुश्मन के द्वारा उपसर्ग हो फिर भी वे अधर्म का प्राप्त नहीं होते । आत्म-चिन्तन को नहीं त्यागते । धर्यपूर्वक उसका चितवन करते हैं। मुनियों पर दुर्जनों के द्वारा कितना भी उपसर्ग क्यों न हो वे अपने आत्म ध्यान से च्युत न होकर कभी भी विकार भाव को उत्पन्न नहीं होने देते। जितना जितना कष्ट आता है उतना उतना सहन कर कर्म की निर्जरा का कारण बना लेते हैं। क्योंकि क्षमा गुण सबसे बड़ा और प्रधान है । D हे जीव ! तू भी उपसर्ग को दृढ़ता से सहन करता हुआ आत्मा में स्थिरता लाने का पुरुषार्थ कर । शुद्धात्म भावना के आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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