Book Title: Chinta ke Vividh Ayam Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 7
________________ द्वारा उपसर्ग को दूर करने के लिए प्रयत्न कर । शत्र और मित्र के प्रति समान भाव रख । यही परम साधु का कर्तव्य है। इससे संसार में सुख, शान्ति मिल सकती है। थोड़े ही समय में तु संसार का अन्त कर मोक्ष की प्राप्ति कर लेगा। प्राणी मात्र के लिए सम्यक्त्व के अतिरिक्त कल्याण करने वाला अन्य कोई पदार्थ तीन काल और तीन लोक में नहीं है । मिथ्यात्व के समान अहित करने वाला अन्य पदार्थ दूसरा कोई नहीं है। हे योगी ! सम्यग्दर्शन सहित आराधना करके इस संसार रूपी बन्धन से शीघ्र ही तर जा। बिना सम्यक्त्व के मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस सम्यग्दर्शन से महापापी भी तर गये हैं। Oजब तक पर-वस्तु में आत्मा लिपटी रहती है तब तक इस आत्मा का सच्चा कल्याण नहीं होता। पर-वस्तु ही आत्मघात करने वाली है । पर-वस्तु ही संसार में इस जीव को परिभ्रमण कराने का कारण है। - देह आदि परद्रव्यों पर विश्वास रखकर चलने वाला यह अज्ञानी मानव कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता। अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार सुख और दुःख का अनुभव करता हुआ सदा संसार में ही भ्रमण करता रहता है। जो ज्ञानी पुरुष संपूर्ण वाह्य वस्तु को त्याग कर अपनी आत्मा में रमण करता है, वह शीघ्र ही कमों की निर्जरा करके संसार से अर्थात् कर्म बन्धन से छूट सकता है । हे योगी ! सम्पूर्ण बाह्य वस्तु के मोह को त्याग कर अपने आत्मसम्मुख होकर, अपने अन्दर ही अपने को अपने 'स्व' उपयोग के द्वारा देख: तत्पश्चात् अपने 'स्व' उपयोग के द्वारा अपने 'स्व' स्वभाव का निरीक्षण करने पर "यह आत्मा चिन्मय चित् ज्योति रूप है"-ऐसा तुझे अपने अन्दर ही मालूम पड़ेगा। तब उस में मग्न होकर अमृतमय, आत्मानन्द सरोवर में क्रीड़ा कर, बार-बार उसी अमृत का पान कर, निजात्म को पुष्ट कर; आत्म बल को बढ़ा। "हे योगी ! यदि अमृतमय आत्मानन्द रूपी रसायन का एक बार तू पान करेगा तो तेरे साथ लगा हुआ कर्म रूपी रोग क्षणभर में नष्ट होगा और सदा के लिए तेरी दरिद्रता दूर होगी । तु अपने अन्दर भरे हुए रत्नों के खजाने को छोड़कर दुनिया के पहाड़, पत्थर, नदी, सरोवर, तीर्थक्षेत्र आदि में भ्रमण करके व्यर्थ ही कष्ट क्यों उठा रहा है ? जरा तू पर पदार्थ की तरफ लगी हुई दृष्टि हटाकर अपने भीतर छिपी हुई रत्नत्रय निधि को ध्यान से देख तब पता लगेगा कि तीन लोक का सारा खजाना तेरे पास ही छिपा हुआ है। तत्पश्चात् बाह्य पदार्थ में दौड़ने वाला तेरा चंचल मन जब इसी में स्थिर हो जाएगा तब तुझे अजर, अमर, अचल स्थिर निज शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति हो जाएगी। हे जीव ! तू अनादिकाल से आज तक अनेकानेक बाह्य विचित्र चित्रों को देखकर आश्चर्यचकित हुआ होगा । परन्तु तीन लोक को आश्चर्यचकित करने वाली अद्भुत वीतराग निर्विकल्प परम ज्योति तेरे ही पास है। उसे देखकर तू कभी आश्चर्य को प्राप्त नहीं हुआ होगा। परमात्मा के नाम मात्र से ही अनेक जन्मों के एकत्रित पापों का नाश होता है । उक्त परमात्मा में स्थित ज्ञान, चारित्र और सम्यग्दर्शन मनुष्य को जगत् का अधीश्वर बना देता है। जिस मुनि का मन चैतन्य स्वरूप में लीन होता है वह योगियों में श्रेष्ठ हो जाता है । हे भव्य जीव ! तू इस संसार की विषयवासना का मन, वचन, काय से त्याग करके शुद्ध, अखण्ड, अविनाशी ज्योति जो शरीर में निरन्तर प्रकाशमान हो रही है उसके दर्शन कर। 0हे साधु ! बाह्य शरीर जो पुद्गलमय है, ऊंच-नीच कर्म के अनुसार इस आत्मा के साथ प्राप्त हुआ है । वह तेरा स्वरूप नहीं है। आत्मा में न लिंग है, न जाति है, न वेष, न गोत्र । वह निविकार, निरंजन, चित्स्वरूप अरूपी है। इसलिए तू जाति आदि बाह्य भावों को छोड़कर केवल एक आत्मा का ही ध्यान कर । आत्मा का स्वभाव अविनाशी है जबकि शरीरादि पदार्थ नश्वर है । आत्मा ज्ञानमय है जबकि शरीरादि जड़ हैं । आत्मा निर्मल वीतरागी है जबकि क्रोधादि कर्म विकाररूप हैं। आत्मा सर्व आकुलता व दुःखों से रहित परमानन्द रूप है जबकि शरीरादि व क्रोधादि का सम्बन्ध जीव को आकुल व दु:खी करने वाला है। इस तरह आत्मा व अनात्मा का सच्चा स्वरूप जान । जितने भी नाम हैं सब शरीर के हैं, आत्मा के नहीं। संसार की माया से अज्ञानी जीव इसी को अपना नाम मानकर संसार में भ्रमण करते हैं। 0 इष्ट अनिष्ट वस्तुओं में समभाव का होना ही परम मोक्ष है । समभाव ही समस्त सुख का वास स्थान है । समभाव ही मुक्ति का मार्ग है । समभाव से मुक्त तपश्चर्या ही सफल है । समभाव रहित तपस्या व्यर्थ है। परीषह रूपी दावानल से सन्तप्त हुआ जीव जब निर्विकल्प हो ज्ञान रूपी शीतल स्वच्छ सरोवर में प्रवेश करता है और अमृत-कण ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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