Book Title: Chinta ke Vividh Ayam
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 21
________________ हे अपराजितेश्वर! मित्र भी अपने में ही है और शत्र भी अपने में ही है। इस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ यह सत्य वाक्य है। फिर मैं इसके अतिरिक्त बाहर क्यों देखता हूँ ? क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान इत्यादि आठों गुणों में संतोष करते हुए रहने से उसी समय ज्ञानावरण इत्यादि आठों कर्मों को दूर करते हुए अब मैं अपनी ज्ञान दृष्टि को अपने में स्थिर करके उसी में रहूं, उसी को देख, उसी में खेलूं । अब मुझको अन्य वस्तु को देखने का क्या काम ? । हे अपराजितेश्वर! नदी, सरोवर, समुद्र के किनारे, पर्वत की गुफा, जिन मन्दिर, वन वाटिका, रेती की चट्टान, शून्यागार, शमणान एवं अन्य निर्जन स्थानों में पशु, नपुंसक, दुष्ट स्त्री, दुष्ट जन तथा विघ्नकारक जीव-जन्तु से रहित स्थान ध्यान करने के लिए सर्वोत्कृष्ट हैं। इस चंचल मन को रोकने के लिए हमेशा शास्त्र-स्वाध्याय करते रहना चाहिये क्योंकि यह बन्दर के समान अत्यन्त चंचल है। जैसे चंचल बन्दर को जब तक खाने के लिए फल-फूल अथवा वृक्ष पर हरे-भरे पत्ते न मिलें तब तक वह वहां स्थिरतापूर्वक नहीं रहता है किन्तु जब उसको वृक्ष में हरे-भरे पत्ते मिल जाते हैं तब उसी में रत रहकर उसीमें रम जाता है। उसी तरह यह हमारा चंचल मन इधर-उधर सूखे हुए संसार रूपी जंगल में इन्द्रिय जन्य क्षणिक बासनाओं के प्रति हमेशा घूमा करता है। यदि यह शास्त्र-स्वाध्याय तथा अन्य पुराण पुरुषों की कथा या आत्मतत्त्व की चर्चा आदि रूपी हरे-भरे वृक्ष में लग जाय तो उसकी चंचलता रुक जाती है और चंचलता रुक जाने से मन अपने आत्मा में स्थिर हो जाता है । तत्पश्चात् बाहर से आने वाले अशुभ कर्मों का हार बन्द हो जाता है। स्वाध्याय का अर्थ आत्मा के सन्मुख होना है। स्वाध्याय एक परम तप है। स्वाध्याय से मन में शान्ति मिलती है और यह कर्म की निर्जरा के लिए मुख्य कारण है । इसलिए मनुष्य को हमेशा स्वाध्याय करते रहना चाहिए। 0जिस मुनि का चित्त महलों के शिखर में और शमशान में, स्तुति और निंदा के विधान में, कीचड़ और केशर में, शय्या और कांटों के अग्रभाग में, पाषाण और चन्द्रकान्त मणि में, चर्म और चीन देशीय रेशम वस्त्रों में और क्षीण शरीर व सन्दर स्त्री में अतुल्य शान्त भाव के प्रभाव या विकल्पों से स्पर्शन न करे, वही एक प्रवीण मुनि समभाव की लीला के विलास का अनुभव करता है अर्थात् वास्तविक समभाव ऐसे मुनि के ही जानना चाहिये । हे परमात्मन् ! मैं न तो इन्द्र का पद चाहता हूं और न चक्रवर्ती पद । मेरे हृदय में तो यही भावना है कि सदैव आपके चरणों की भक्ति बनी रहे । मेरु मन्दर पुराण । तुमको यदि संसार के दु:खों का नाश करना है तो सम्पूर्ण परिग्रहों को छोड़कर जिनदीक्षा धारण करो। जिनदीक्षा धारण किये बिना अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति व अनन्त सुख आदि देने वाले मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । आठों कर्मों से रहित शुद्ध स्वर्ण के समान कलंकरहित यह जीव सदैव प्रकाशमान होता है। 0 मनुष्य पर्याय को धारण किया हुआ जीव अपने शरीर को छोड़ कर अपने-अपने परिणाम के अनुसार चारों गतियों को प्राप्त करता है। न्यूनाधिक परिणामों के अनुसार पंचेन्द्रिय पर्याय तथा तिर्यंच गति को प्राप्त हुए जीव अपने-अपने परिणामानुसार पूर्वोक्त कथन के समान अनेक गतियों में जन्म लेते हैं। देव गति में जन्म धारण किया हुआ जीव देव पर्याय को छोड़कर मनुष्य व तिर्यंच गति को प्राप्त होता है। 0 जीव अमूर्तिक स्वभाव वाले हैं। जिस प्रकार एक दीपक को दोनों हाथों की अंजुलि में रखकर यदि बन्द किया जाए तो वह प्रकाश मन्द-मन्द प्रतीत होता है, उसी प्रकार अनादि काल से रहने वाले शरीर में आत्मा शरीर रूपी आवरण को प्राप्त हुआ है। नाम कर्म द्वारा जितना शरीर का परिमाण होता है उतना ही आत्मा छोटे-बड़े शरीर प्रमाण धारण किये हुए है । यह जीव अत्यन्त सूक्ष्म तथा मोटे रूप को धारण करता है, परन्तु आत्मा शरीर के निमित्त कारण छोटा-बड़ा कहलाता है । यदि निश्चय नय की दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा न छोटा होता है और न बड़ा । यह आत्मा शरीर का निमित्त पाकर छोटा-बड़ा शरीर धारण करता है। आत्मा छोटा-बड़ा नहीं है। 0 आकाश में बिजली की चमक के समान समस्त जीव जन्म-मरण करते आये हैं । इन तीन लोकों में सर्व जीव परस्पर बंधु के रूप में भी हैं, नाती तया मित्र भी हैं। परन्तु वे कभी भी स्थिर होकर अपने साथ नहीं रहते, सदैव उनका संयोग-वियोग होता ही रहता है। 0 सम्पत्ति आकाश में बिजली की चमक के समान क्षणिक है। राजा-महाराजा के पास संपत्ति होते हुए भी वे क्षणिक अमृत-कण १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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