Book Title: Chinta ke Vividh Ayam
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 22
________________ संपत्ति के मोह से ही चक्रवर्ती होते हुए भी नरक में गए हैं। यह सब मोह की लीला है । संपत्ति एक स्थान पर स्थिर नहीं रहती । यह सम्पत्ति वेश्या के समान है जो कभी इसकी बगल में कभी उसकी बगल में जाती है । यह सब पाप-पुण्य का फल है । इस कारण किसी को सुख-शान्ति नहीं मिलती। एक दिन सबको छोड़कर जाना पड़ेगा । D तीनों लोकों की सम्पत्ति अपने पास रहने पर भी मूर्ख ज्ञानी लोगों की तृष्णा की पूर्ति नहीं होती। वे मूर्ख इतना होने पर भी दूसरों की सम्पत्ति का अपहरण करने की भावना रखते हैं । सामान्य रीति से विचार किया जाय तो यह भी एक चोरी है। चोरी दो प्रकार की होती है - कार्य चोरी व कारण चोरी। अपने पास कितनी भी सम्पत्ति रहने पर भी दूसरों का द्रव्य लेना, मायाचार से अन्य का धन लेना, दरिद्रता आने से चोरी करना यह सभी कारण चोरी हैं। मायाचार से दूसरे माल को लेते समय अधिक लेना, देते समय कम देना हमेशा अन्याय द्वारा धन सम्पन्न करना, अन्य का माल चुरा लेना आदि कार्य चोरी कहलाती है । , भूमि में बीज बोए बिना अंकुर की प्राप्ति नहीं होती । पर्वत पर यदि पानी की वर्षा न हो तो ऊपर से झरता हुआ पानी तालाब व कुओं में नहीं आता, उसी प्रकार पुण्य के कारण होने वाले व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजा आदि किये बिना इस मानव को पंचेन्द्रिय सुख की प्राप्ति नहीं होती। [] करोड़ों चन्द्र और सूर्यो से भी अधिक तेजमय केवल ज्ञान रूपी उत्कृष्ट ज्योति को धारण करने वाले देवताओं के मौलि मुकुटों से प्रतिबिंबित श्री ऋषभदेव के चरण कमल हमारी रक्षा करें । सारासार विचार में परायणकारिणीभूत आत्मस्वरूप हे महात्मन्! सद्गुण रूपी शृङ्गार हार से शोभित हे निरंजन सिद्ध भगवान्! मुझे सारभूत सद्बुद्धि शीघ्रातिशीघ्र प्रदान कीजिये। सन्मार्ग दिखाओ । D संसार नाटक को देखते हुए एवं बोधरूपी तथा ज्ञान दर्शन सुखमयी सत्त सुखों में मग्न होकर नृत्य करने वाले हे संश्री, सभी दुःखों को विध्वंस करने वाले निरञ्जन सिद्ध भगवान् मुझमें सद्बुद्धि प्रदान करो । हे भोग सागर, सुज्ञान सागर, कान्ति सागर, योग सागर, वीतराग निरञ्जन सिद्ध भगवान्! मुझको शीघ्र ही सज्जनों के अधिपति, सुज्ञान सूर्य, तीनों लोकों को आनन्ददायक एवं अष्ट कर्म रूपी अष्ट दिशाओं को जीतकर अखण्ड साम्राज्य को प्राप्त करने वाले भगवान् सिद्ध परमात्मा हमें सुबुद्धि प्रदान करें । हे परमात्मन्! आप सुख निधि हैं। लोक में जो पदार्थ सर्वश्रेष्ठ कहलाता है उससे भी आप अत्यधिक श्रेष्ठ हैं। जो वस्तु निर्मल है उससे भी आप अत्यधिक निर्मल हैं और जो वस्तु मधुर है उससे भी आप अत्यधिक मधुर हैं। आप मेरे हृदय में चिरकाल तक वास कोजिये । पोल में कूट-कूट कर भरे हुए तिल की भांति तीन लोक की पोल में भरे हुए समस्त चराचर जीवों को एक साथ ही केवल ज्ञान रूपी नेत्रों से देखने वाले ज्ञानाधिपति हे निरंजन सिद्ध भगवान्! आप सर्वदा मेरे हृदय में रहकर मुझे विशुद्ध कीजिये । [D] हे सिद्धात्मन्! आप कामदेव रूपी मतवाले हावी के लिए सिंह के समान हैं, ज्ञान-समुद्र को भड़काने के लिये चन्द्रमा के समान हैं तथा कर्म-पर्वत को आप सम्हाल चुके हैं इसलिये हमें भी उसी प्रकार का ज्ञान दीजिये जिससे हम अपनी कायरता को त्याग सकें । हे निरंजन सिद्ध भगवान्! आप लोकैकशरण हैं जो भव्य जीव आपके शरण में आते हैं उनके संचित पुण्य को देखकर आप उनकी रक्षा करते हैं। इतना ही नहीं बल्कि पाप रूपी भयंकर जाल से मुक्त करते हैं । आप तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ हैं । हे सिद्धात्मन्! जो प्राणी चलते, बोलते, उठते और बैठते समय स्मरण-पथ में विराजमान रहते हैं उनके सर्वकल्याण होते हैं और उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं । इसलिए हे निरंजन भगवान्! आप रत्न दर्पण के समान मेरे हृदय में रहकर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करिये । १०२ Jain Education International आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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