Book Title: Chinta ke Vividh Ayam
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 27
________________ 0 इस संसार में अर्हन्त से बढ़कर कोई उत्कृष्ट देव नहीं, निर्ग्रन्थ से बढ़कर महत्त्वशील गुरु नहीं, अहिंसा आदि पंचव्रतों से उत्तम अन्य कोई व्रत नहीं, जिनमत से श्रेष्ठ कोई मत नहीं, सबके हृदय को प्रकाशित करने वाला ग्यारह अंग चौदह पूर्व से बढ़कर दूसरा कोई शास्त्र-ज्ञान नहीं, सम्यक् दर्शन इत्यादि रत्नत्रय से बढ़ कर दूसरा कोई परमोत्कृष्ट मोक्ष का मार्ग नहीं और पांच परमेष्ठियों से बढ़कर भव्य जीवों के लिए कोई दूसरा कल्याण एवं हितकारी नहीं हो सकता। धर्मामृत 0 ऐसी कविता जो साधुजनों के समान ही मात्सर्यवश मूक रहने वाले व्यक्तियों को भी बलात् साधुवाद (धन्य-धन्य) कहने को मुखरित कर दे, वही वास्तविक कविता है। इससे भिन्न नहीं । वस्तुतः जिन्हें सुनकर प्रसन्नता से कन्धा ऊँचा करते हुए मृगादि पशुगण भी अपने मुख में चबाये जाते हुए घास को अधचबाया छोड़ दें, वही कविता वास्तविक है। इससे भिन्न कविता भी कोई कविता है ? Oजिस प्रकार बरसात के पानी के बिना गन्ना कोमल और सुरस नहीं हो सकता, उसी प्रकार भगवान की वाणी के बिना सुकवि मधुर और अच्छे शास्त्र की रचना नहीं कर सकता। जिस प्रकार रसोई में बिना नमक के सरस शाक आदि भोजन नहीं बन सकता है, तथा घी के साथ अगर नमक का प्रयोग नहीं किया जाएगा तो जीभ को स्वाद नहीं आता, उसी प्रकार यदि कविता में भगवान् की वाणी का रसास्वाद नहीं होगा तो वह मधुर तथा सुकाव्य नहीं बन सकती। 0जीवों को इस जगत् में सम्पूर्ण वैभव सुलभता से प्राप्त होता है किन्तु तत्ववेत्ता पुरुष की दृष्टि से गुरुओं के वचन दुर्लभ हैं । सद्गुरु के बिना भी जो संसार-समुद्र से तैर जाने की इच्छा करते हैं, वे मूढ़ जीव आयु कर्म से रहित होकर भी जीने की इच्छा करते हैं। जिन्होंने गुरु-उपदेश का उल्लंघन किया है वे लोग अन्तर्मुहूर्त काल में भी अनेक योनियों में क्षुद्रभव धारण कर भ्रमण करते हैं। Oजो सौ इन्द्रों के द्वारा पूजनीय हैं एवं अठारह दोषों से रहित हैं ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से विनिर्गत पवित्र वाणी के अर्थ को तत्त्व कहते हैं। क्रम से कहे हुए तत्त्व के ऊपर अचल श्रद्धा न रखना और व्यवहार तथा निश्चयनय मार्ग से उसे समझकर स्व-आत्म-अनुभूति करना तत्त्वश्रद्धान है। यह तत्त्वश्रद्धान (सम्यग्दर्शन) तीनों लोकों में पूजनीय है, अविनाशी सुख-शान्ति रूप मोक्ष सुख को देने वाला है। बिना सम्यग्दर्शन के मनुष्य की शोभा नहीं है । जिस प्रकार सेना हो, किन्तु सेनापति न हो तो सेना शोभारहित होती है; मुख है किन्तु यदि नाक नहीं तो मुख की शोभा नहीं होती; अंगूठी के बिना अंगुली शोभायमान नहीं लगती, जिस प्रकार बिना धुरी के गाड़ी चलने में समर्थ नहीं, हाथ जिस प्रकार अंगूली के बिना शोभा नहीं देता, बिना तेल के जिस प्रकार दीपक प्रकाश नहीं देता, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् के मानवों की शोभा सम्यग्दर्शन के बिना नहीं है । जो व्यक्ति अन्याय से धन कमाता है, उसे राजा भी दण्ड देता है तथा लोक में भी उसका अपमान होता है एवं अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । इसलिए न्याय से ही धन कमाना चाहिए। ऐसा करने से ही यह जीव इस लोक में सुखी रह सकता है। न्याय से कमाया हुआ धन तो सत्पात्र को देने और दुःखी जीवों में बांटने पर उनके दुःखों को दूर करने के काम आता है और ऐसा करने से वह जीव भी सुखी होता है। बिना धन के गृहस्थ धर्म चल नहीं सकता, इसलिए गृहस्थ के लिए धन का महत्त्व है। 0 मेंढक गड्ढे में इकट्ठे हुए कीचड़ के पानी को ही सरोवर मान लेता है, वह विशाल स्वच्छ जल वाले समुद्र को जानता ही नहीं। उल्लू सूरज के प्रकाश को धिक्कार करके रात्रि के अन्धकार को ही अच्छा मानता है क्योंकि उसको दिन में दिखाई नहीं देता, रात को दिखाई देता है। कौवा चन्द्रमा की चांदनी का तिरस्कार करता है क्योंकि उसको चन्द्रमा की चांदनी में अच्छा दिखाई नहीं देता, इसलिए वह रात्रि की ही प्रशंसा करता है। इसी तरह हीन लोग हमेशा हीन-धर्मों तथा हीन लोगों के संसर्ग में रहकर हीन-प्रवृत्ति तथा कुसंस्कार वाले बन जाते हैं, इस कारण उनको हीन धर्म तथा हीन लोग ही अच्छे लगते हैं। इसी कारण वे उनकी प्रशंसा करते हैं और सज्जनों की निन्दा करते हैं। 0 जैनधर्म में ऐसा कोई नियम नहीं कि जो राजा, महाराजा या बलवान, पहलवान हो, जैन हो, वही दिगम्बर मुनि बने । किन्तु जो कुल में, शील में, वंश में, बुद्धि में शुद्ध हो, शुद्ध आचार-विचार का हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या वैश्य हो, वह दिगम्बर मुनि बन सकता है। जो काम कठिन प्रतीत होता है उसे सरल किया जा सकता है, सिंह के ऊपर सवारी भी की जा सकती है। संसार में जो अमृत-कण १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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