Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 9
________________ [८] मालवाका राजा एक भोज (वृद्धभोज) और हो गया है' ऐसी कल्पना करते है । वही कल्पना आज हमारे अन्तःकरणमें भी प्रविष्ट हुई है । और निम्नलिखित प्रमाणसे यह कल्पना कल्पनामात्र ही नहीं किन्तु सत्य प्रतीत होती हैभगवज्जिनसेनाचार्य शककी ८वीं शताब्दीमें हुए हैं । उन्होंने आदिपुराणके मंगलाचरणमें 'चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ।। इस श्लोकसे न्यायकुमुदचन्द्रोदयके कर्ता श्रीप्रभाचन्द्रआचार्यकी स्तुति की है । प्रभाचन्द्र आचार्यने न्यायकुमुदचन्द्रोदयमें "सूर्यका उदय तो हुआ, अब चन्द्रका उदय किया जाता है" इस आशयका गद्य देकर, प्रमेयकमलमार्तण्डका कर्तृत्व अपनेमें ही स्वीकार किया है । और प्रमेयकमलमार्तण्डकी समाप्तिमें निम्नलिखित पाठ देकर, भोजदेवके राज्यमें धारानगरीमें अपना निवास विदित किया है । "इति श्रीभोजदेवराष्ट्रे श्रीमद्धारानिवासिना परमपरमेष्ठिप्रणामार्जितामलपुण्यनिराकृतकर्ममलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदविवृत्तमिति ।" इस प्रमाणसे शककी ८ वीं शताब्दीके पूर्व मालवदेशमें एक वृद्धभोजका होना निश्चित होता है । और यदि वह वृद्धभोज श्रीनेमिचन्द्रके समकाल (शककी ७वीं शताब्दी) में ही हो तो कोई आश्चर्य नहीं । अब रही मालवदेशमें अस्तित्वकी और सोमश्रेष्ठीके निमित्त द्रव्यसंग्रह बनानेकी वार्ता, सो यह असंभव नहीं। क्योंकि, जैननिर्ग्रन्थाचार्य सदा एक स्थानमें न रहकर ग्राम ग्राममें विहार करते हैं । और भव्यजीवोंमें उनका स्वभावसे धार्मिक अनुराग भी रहता है । अतः दक्षिणमें विहार करनेसे पूर्व उक्त आचार्यने मालवदेशको सुशोभित किया हो; और जैसे श्रीचामुण्डरायकी प्रार्थनापर गोमट्टसारादि शास्त्र रचे, उसी प्रकार सोमश्रेष्ठीके निमित्त द्रव्यसंग्रह भी रचा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । श्रीनेमिचन्द्रके गुरुजन उक्त महानुभाव श्रीनेमिचन्द्रके गुरु कौन-कौन थे ? इस विषयकी अन्वेषणा करनेपर गोमट्टसारमें निम्नलिखित गाथायें मिली हैं। “णमिऊण अभयणंदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥१॥ णमह गुणरयणभूसणसिद्धंतामियमहब्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥२॥ जस्सय पायपसाएणतणंसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरेंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥३॥ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं । सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिष्टं ॥४॥ अर्थात् 'मैं अभयनन्दीको, श्रुतसागरके पारगामी इंद्रनंदीको और श्रीवीरनंदीस्वामीको नमस्कार करके प्रकृतिप्रत्यय अधिकारको कहता हूँ 19। गुणरूपी रत्नोंके भूषण और सिद्धान्तरूपी अमृत महोदधिसे उत्पन्न ऐसे को और निर्मल गुणोंके धारक श्रीइन्द्रनन्दी गरुको नमस्कार करता हूँ ।। जिनके चरणोंके प्रसादसे श्रीवीरनंदी और श्री इन्द्रनंदीका शिष्य मैं (नेमिचन्द्र) संसारसमुद्रके पार हुआ, उन श्रीअभयनन्दीको मैं नमस्कार करता हूँ ।३। श्री इंद्रनन्दी गुरुके पास संपूर्ण सिद्धान्तको सुनकर श्रीकनकनंदी गुरुने सत्त्वस्थानका कथन किया ।४।' इन गाथाओंसे विदित होता है कि, श्रीअभयनन्दी, वीरनन्दी, इंद्रनंदी और कनकनन्दी ये चारों महाआचार्य श्रीनेमिचन्द्रके गुरु थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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