Book Title: Bramhopnishad
Author(s): Kalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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(शार्दूलविक्रीडितम्) प्रज्ञावानसि चेत्तदा तु वनितागात्रेषु दृष्टेष्वरं, प्रत्यासंहर दृष्टिमुग्रकिरणे, दृष्टे यथाऽऽकर्षसि । सर्पो दृष्टिविषोऽपि रे वरतरो, दृष्टो न यो हिंसति । तस्मादुग्रतरं विषं तु वनिता, दृष्टाऽपि या हिंसति ॥४-९॥
તું બુદ્ધિશાળી હોય
॥४२॥
इन्द्रियम्

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