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अठारह
प्राणी मनुष्य के जीवन का । एकेन्द्रिय जीवों के भी प्राण हैं । उन्हें भी सुख-दुःख होता है । मनुष्य के लिए उनके संहार में पाप नहीं, यह धर्म और अहिंसा के क्षेत्र में नहीं टिक सकता ।
स्वामीजी कइयों को प्रिय थे और कइयों को अप्रिय । कइयों के लिए स्वागतार्ह थे और कइयों के लिए एक महान् भय । इस तरह एक ही व्यक्ति के अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं । इसके कारण की स्वयं स्वामीजी ने ही मीमांसा की है। इसमें अपेक्षावाद है | स्वामीजी कहते हैं- 'एक ही पकवान दो मनुष्यों के सामने आता है । नीरोग को वह मीठा लगता है और रोगी को कड़वा । यह वस्तु का अन्तर नहीं उसके भोक्ता का अन्तर है । सम्यक् दृष्टि को साधु अच्छा लगता है और मिथ्यादृष्टि को बुरा ।' (३०३)
'गांव के मनुष्य दो व्यक्तियों के सामने आते हैं । एक व्यक्ति पीलिये का रोगी है। वह उन सबको पीला ही पीला देखता है । दूसरा व्यक्ति स्वस्थ है । उसे वे पीले नहीं मालूम देते । वैसे ही मेरे श्रद्धा आचार उनको प्रपंच मालूम देते हैं जिनमें स्वयं प्रपंच है। जिनमें शुद्ध दृष्टि है उन्हें मेरे श्रद्धा आचार में कोई खोट नहीं दिखाई देती ।' (३००)
स्वामीजी के विचारों को सही रूप से तोलने की यदि कोई शुद्ध तुला हो सकती है तो वह आगम - वाणी है। स्वामीजी जैन मुनि थे। जैन शास्त्रों के आधार पर वे
fus हुए थे । उनमें उनकी अनन्य श्रद्धा थी । उनके आचार, विचार और व्यवहार में जिनवाणी का प्रत्यक्ष प्रभाव है । इस कसौटी पर देखा जाए तो वे सौ टंच सोने की तरह खरे उतरते हैं ।
स्वामीजी के इन दृष्टांतों का श्रीमद् जयाचार्य ने अपने 'भिक्षु यश रसायण' नामक सुन्दर चरित्र - काव्य में भरपूर उपयोग किया है। संगीतमय मधुर पद्य में उन्हें गुम्फित कर स्वामीजी के एक मार्मिक जीवन चरित्र की धरोहर उन्होंने भावी पीढ़ी को सौंपी है।
मेरी 'आचार्य संत भीखणजी' नामक पुस्तक में और भाव स्फोटन है । इसी पुस्तक के द्वितीय खण्ड दृष्टांतों का प्रकरणानुसार उपयोग किया गया है ।
अनेक दृष्टांतों का हिन्दी अनुवाद ( अप्रकाशित ) में अवशेष अन्य
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी की बहुचर्चित पुस्तक 'भिक्षु विचार दर्शन' में भी अनेक दृष्टांतों के हार्द को स्पष्ट किया गया है ।
स्वामीजी के दृष्टांतों को आज तक हम व्याख्यानों में सुनते रहे हैं। प्रथम बार मूल राजस्थानी भाषा ' तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह' (वि० सं० २०१७ ) के अवसर पर पुस्तकाकार रूप में पाठकों के समक्ष आए थे। इनकी महत्त्वपूर्ण समालोचनाएं प्राप्त हुई और विद्वानों ने इस विधा की इस महत्त्वपूर्ण कृति को बहुत सराहा। साम्प्रतं मूल और हिन्दी अनुवाद तथा कुछ परिशिष्टों के साथ इसको प्रस्तुत करते हुए हमें परम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।