Book Title: Bhav Sangrahadi
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 3
________________ ग्रन्थ-परिचय। इस संग्रहमें चार ग्रन्थ प्रकाशित किये जाते हैं--१ प्राकृत भावसंग्रह, २ संस्कृत भावसंग्रह, ३ भाव-त्रिभङ्गी और ४ आस्रव-त्रिभङ्गी । इन चारोंके सम्बन्धमें हम जो कुछ बातें जान सके हैं, वे संक्षेपमें नीचे दी जाती हैं: १-भाव-संग्रह। इसके कत्ती श्रीविमलसेन गणधर ( गणी ) के शिष्य आचार्य देवसेन हैं और वे संभवतः नयचक्र और दर्शनसार आदिके कर्तासे अभिन्न हैं। नयचक्रकी भूमिकामें हम इनके विषयमें विस्तारपूर्वक लिख चुके हैं। विक्रम संवत् ९९० में उन्होंने दर्शनसारकी रचना की थी, अतएव ये विक्रमकी दसवीं शताब्दिके विद्वान् हैं। अब तक इनके बनाये हुए दर्शनसार, तत्त्वसार, आराधनासार, नयचक्र और यह भावसंग्रह इस तरह पाँच ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं* । ये पाँचों प्राकृतमें हैं । ज्ञानसार और धर्मसंग्रह आदि और भी कई ग्रन्थ आपके बनाये हुए सुने जाते है; परन्तु अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। इनकी खोज होनी चाहिए। ___ दो हस्तलिखित प्रतियों के आधारसे इस ग्रन्थका संशोधन कराया गया है। इनमेंसे पहली कसंज्ञक प्रति जयपुरस्थ पाटोदी-मन्दिरके सरस्वतीभंडारसे पं० इन्द्रलालजी शास्त्रीद्वारा प्राप्त हुई और दूसरी खसंज्ञक प्रति पूनेके 'भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट 'से+। पहली प्रति 'ज्येष्ट सुदी १२ शुक्र संवत् १५५८' की लिखी हुई है और बहुत ही शुद्ध है। दूसरी प्रति ग्रन्थ लिखानेवालेकी एक विस्तृत प्रशस्तिसे युक्त है और बहुत ही अशुद्ध है। प्रशस्तिसे मालूम होता है कि यह प्रति वि० संवत् १६२७ में खण्डेलवाल जातिके एक गोधागोत्रवाले कुटुम्बकी ओरसे 'अष्टाह्निकव्रतके उद्याप * इनमें से 'आराधनासार' माणिकचन्द-ग्रन्थमालाका छठा और नयचक्र' सोलहवाँ ग्रन्थ है । तत्त्वसार तेरहवें 'तत्त्वानुशासनादि-संग्रह के अन्तर्गत है। 'दर्शनसार' जेन ग्रन्थरत्नाकरकार्यालय द्वारा प्रकाशित हुआ है। + नं० १४६३, सन् १८८६-९२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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