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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दिनद्वयोपवासित्वा वने सर्वर्तुकाह्वये ।
पौषे मास्यनुराधायामेकादश्यां महीभुजाम् ॥५४।२१६।। -सर्वर्तुक वनमें दो दिनके उपवासका नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशीको ( एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली)। इसी प्रकार केवलज्ञानकल्याणकके सम्बन्धमें आचार्य गुणभद्रने लिखा है
त्रीन् मासान् जिनकल्पेन नीत्वा दीक्षावनान्तरे। अधस्तान्नागवृक्षस्य स्थित्वा षष्ठोपवासभृत् ॥ फाल्गुने कृष्णसप्तम्यामनुराधापराह्लके।
-उत्तरपुराण ५४।२२३-२४ इस प्रकार जिनकल्प मुद्राके द्वारा तीन माह बिताकर ये दीक्षा वनमें नागवृक्षके नीचे वेलाका नियम लेकर स्थित हुए। वह फाल्गुन कृष्णा सप्तमीके शामका समय था और उस समय अनुराधा नक्षत्र था। ( तब उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया )। . इस प्रकार काशी जनपदके वाराणसी, सिंहपुरी और चन्द्रपुरी तीनों नगर चार तीर्थंकरोंके कल्याणक क्षेत्र हैं। धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाओं का केन्द्र :
वाराणसी नगरमें प्राचीन कालमें अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाएँ घटित हुई हैं। जैन पुराण-साहित्यमें सर्वप्रथम इस नगरका उल्लेख राजकुमारी सुलोचनाके प्रसंगमें आया है। काशीनरेश अकंपनने अपनी पुत्री सुलोचनाका स्वयंवर किया। राजकुमारीके सौन्दर्यकी प्रशंसा सुनकर भारतके बहुत-से नरेश और राजकुमार इस अवसरपर वाराणसीमें आये। उनमें भारतके प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरतके ज्येष्ठ पुत्र युवराज अर्ककीति, महाराज भरतके प्रधान सेनापति और हस्तिनापुरके राजकुमार तथा बाहुबलीके पौत्र जयकुमार जैसे विख्यात पुरुष भी सम्मिलित हुए थे। सभी राजकुमार आशा लेकर आये थे, किन्तु भाग्यलक्ष्मी राजकुमार जयकुमारके ऊपर प्रसन्न हो उठो। राजकुमारीने वरमाला जयकुमारके गले में डाल दी। कुछ हताश और ईर्ष्यालु राजकुमारोंने कुमार अर्ककीर्ति को भड़का दिया 'आप चक्रवर्ती महाराजके उत्तराधिकारी हैं, भावी सम्राट् हैं। आपके यहाँ होते हुए आपके एक सेवकको यह कन्यारत्न मिले, यह अन्यायकी पराकाष्ठा है। साम्राज्यकी सम्पूर्ण सुन्दर वस्तुओंपर सम्राट्का अधिकार होता है।'
आद्य तीर्थंकर ऋषभदेवका धर्मशासन और आद्य चक्रवर्ती भरतका राज्यशासन सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में प्रवर्तमान था। किन्तु वाराणसीने सभ्यताके इस आदिम कालमें एक नये इतिहासका निर्माण किया। इस युगमें सामाजिक व्यवस्थाके नये-नये आयाम निर्धारित हो रहे थे। यह स्वयंवर भी उनमें एक था। यह प्रथम बार आयोजित किया गया था। इस प्रथा द्वारा स्त्री जातिको अपना भावी जीवन-साथी चुननेकी स्वाधीनता दी गयी थी। इसमें सभी प्रत्याशी समान थे। बातोंमें आकर राजकुमार अर्ककीर्तिने न्यायकी इस रेखाको लाँघकर स्वामी-सेवकका अनावश्यक प्रश्न खड़ा कर देना चाहा। जयकूमारने अन्यायकी इस चुनौतीको स्वीकार किया। उन्होंने काशीके विस्तृत मैदानमें युवराज अर्ककीति और उनके साथी राजकुमारोंको पराजित कर न्याय और नैतिकताको धूमिल होनेसे बचा लिया।
एक अन्य पौराणिक उल्लेखके अनुसार भगवान् मल्लिनाथके तीर्थमें यहाँ नौवाँ चक्रवर्ती