Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 268
________________ २३० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अर्थात् तक्षशिलामें महान् बाहबली रहता था। वह सदा भरत राजाका विरोधी था और उनकी आज्ञाका पालन नहीं करता था। 'पत्तो तवखसिलपूरं जयसवूखट्र कलयलारावो। जुज्झस्स कारणत्थं सन्नद्धो तक्खणं भरहो' ॥४॥४०॥ अर्थात् भरत तक्षशिला पहँचे और तत्क्षण युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये। उस समय जय शब्दके उद्घोषका कलकल शब्द सर्वत्र फैल गया। 'बाहुबली पि महप्पा भरहनरिन्दं समागयं - सोउं । भडचडयरेण महया तक्खसिलाओ विणिज्जाओ' ॥४॥४१॥ अर्थात् महात्मा बाहुबली भी भरत राजाका आगमन सुनकर सुभटोंकी महती सेनाके साथ तक्षशिलासे बाहर निकला। विमलसूरि मानते हैं कि दोनोंमें दृष्टि और मुष्टि युद्ध हुआ। .. विमलसूरिने कई कथानकोंमें पोदनपुरका उल्लेख किया है। वे कथानक दिगम्बर पुराणोंमें भी उपलब्ध होते हैं-जैसे मधुपिंगल और कुण्डलमण्डित, गजकुमार आदि। किन्तु यह आश्चर्यजनक है कि बाहुबलीके चरित्रमें उन्होंने पोदनपुरका उल्लेख नहीं किया। वहाँ उन्होंने पोदनपुरके स्थानपर तक्षशिलाका ही उल्लेख किया है। श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें जहाँपर भी बाहबलीका चरित्र-चित्रण किया है, वहाँ सर्वत्र बहली ( वाह्लीक ) देश और तक्षशिला नगरका उल्लेख मिलता है। एक प्रकारसे श्वेताम्बर साहित्यमें पउमचारउको ही परम्पराका अनुसरण मिलता है। यहाँ इस प्रकारके कुछ उद्धरण देना समुचित होगा'बहुलीदेशसीम्नि गतः सैन्येन च तत्र स्थापितवान् ।' -कल्पसूत्र, समयसुन्दरगणी कृत कल्पलता व्याख्या। अर्थात् बाहुबली भी भरतको आया जानकर सेना सहित बहली देशकी सीमापर आया। 'ततो भरतेन बहुविलापदुःखितेन बाहुबलिपुत्राय सोमयशसे तक्षशिलाराज्यं दत्वा अयोध्यानगर्यां समागतम्। -कल्पसूत्र २१४, कल्पलता व्याख्या -अति विलापसे दुःखी भरत तब बाहुबलीके पुत्र सोमयशको तक्षशिलाका राज्य देकर अयोध्या नगरीमें वापस आ गया। 'तक्खसिला-बहली देशे बाहुबले गर्याम् ।' -अभिधानराजेन्द्र कोश अर्थात् तक्षशिला बहली देशमें बाहुबलीकी नगरी। 'तक्खसिलाइ पुरीए वहलीविसयावयंसभूयाए ।' -कुमारपाल प्रतिबोध २१२ अर्थात् तक्षशिला बहली देशका एक अंगभूत । 'स्वामिशिक्षां दौत्यदीक्षामिवादाय ससौष्ठवाम् । सूवेगो रथमारुह्याचलत्तक्षशिलां प्रति' ॥१५॥२५॥ -परिशिष्ट पर्व

Loading...

Page Navigation
1 ... 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374