Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 02
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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३१२ क्षायिकभावे स्नातकचरणमा, लघुता पूर्ण प्रकाशेरे, निर्मलता लघुता चेतनमां, सहजोपयोगे विकाशेरे. ल. ७ उच्च नीवन लघुता करनारी, दोष मानादिक विघटेरे, बुद्धिसागर अनुभवभानु, झळहळ ज्योति प्रकटेरे. ल. ८
अथ अष्टमी एकताक्रिया.
दुहा. एकीले संसारमां, भटक्यो वार अनंत, कोइ न साथै आवतुं, चेत चेत जीव संत. ॥१॥ परभव जातां जीवनी, कोइ न आवे साथ, माया ममता त्यागीने, सेवो त्रिभुवननाथ.
नेमिजिन अरजी आ उरमा स्वीकारो-ए राग. चेतनजी कोइ न दुनियामां तारु, माने छे फोक मारु. मारु चे० सगां संबंधी कोइ न तारु, परभव जाय तुं एकीलो, कायानी माया साथ न आवे, चतुर चित्तमां चेती लो. चे०१ एकीलो पुण्य पाप ज्यां त्यां भोगवतो, एकीलो पुण्य पाप कर्ता, एकीलो आवतो ने एकीलो जावतो, एकीलो पुण्यपाप हर्ता.चे. शुद्ध चेतन तुं पुद्गलथी न्यारो, चेतन एक तुहि सारो, द्रव्यपणे तुं एकज नित्य छे, गुणपर्याय आधारो. चे. ३ पुद्गलभाव सहु भिन्न विचारी, विनति आ उरमां उतारी; एकत्व भावना भावो हृदयमां, पामशो भवजलपारी. चेतन. ४ एकत्व भावनाथी जीव अनंता, पाम्या छे शिवपद साचुं; पामे छे पामशे जीव अनंता, एकत्व भावमांहि राचुं. चेतन. ५ शुद्ध स्वरूप करनारी छे एकता, अंतरमां थाय उजियारी; बुद्धिसागर शुद्ध एकत्व भावना. मंगलपद करनारी. चेतन. ६
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