Book Title: Bhajanpad Sangraha Part 02
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 321
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१६ पुद्गल शक्तिथी भिन्न छे, शुद्ध चेतन शक्ति; आपस्वभावे रमणता, करतां होय व्यक्ति शक्ति. ॥ २ ॥ दीनभाव दूरे करी, परमातम भावो; आपोआप प्रकाशतो, नहि कोइनो दावी. शक्ति. ॥ ३ ॥ आप आप परिणमे, उच्च जीवन वृद्धिः समज शुद्धस्वभावथी, लहे आनंद रूद्धि. शक्ति. ॥ ४ ॥ पर परिणामे बंध छे, शुद्ध उपयोग मुक्ति; आप बंधातो छूटतो, सत्य गुरुगम युक्ति शक्ति. ॥ ५ ॥ लागी ताळी ध्याननी, ज्योति अन्तर जागी; बुद्धिसागर ब्रह्ममां, लय लीनता लागी शक्ति. ॥ ६ ॥ आत्मरुद्धि स्वाध्याय, श्रीरे सिद्धाचल भेटवा. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे जोइए ते आत्ममां, बाकी बाह्यमां भ्रान्ति; बाह्य दशामां दोडतां, कदी होय न शान्ति. जे जाग्या निज भावमां, पाम्या क्षायिक देवा; औपशमादिक भावथी, साची प्रभु सेवा. अष्ट सिद्धि नवरूद्धयो, निज घटमांहि छाजे; मगटपणे शुद्ध चेतना, शुद्ध चेतन गाजे. मंगलनो मंगल प्रभु, शुद्ध चेतन दीवो; सहज स्वरूपी चेतना, ध्यानामृत पीवो. लवणनी पूतळी जलधिमा, त्याग लेतां समाणी; परमानंद शुं वर्णवे, तेम वैखरी वाणी : उग्यो दिनमाण झळहळे, रहे नहि जगछानो; बुद्धिसागर अनुभवे, परमात्मा मजानो. For Private And Personal Use Only जे. ॥ १ ॥ जे. ॥ २ ॥ जे. ॥ ३ ॥ जे. ॥ ४ ॥ जे. ॥ ५ ॥ जे. ॥ ६ ॥

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