Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ (९) 'भगवती जोड़' में ५०१ ढाले हैं। इसकी आखिरी ढाल में पुस्तक के लिपिकार का नमस्कार, भगवती की उद्देशनविधि - कितने विभागों में वाचना दी गई, और भगवती के शतकों तथा उद्देशकों का संख्यांकन है । पाठकों की सुविधा के लिए शतकों और उद्देशकों की संख्या ग्रन्थ के अन्त में यन्त्र के द्वारा भी दिखा दी गई है। जयाचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तिम मंगल के रूप में अपने पूर्वाचार्यों की स्मृति की है। वि. सं. १९१९ में 'भगवती जोड़' की रचना प्रारम्भ की गई। इसका समापन वि. स. १९२४ में पोष शुक्ला दसमी के दिन रविवार को हुआ । उस समय जयाचार्य का प्रवास बीदासर में था। वहां २१ साधुओं और ९० साध्वियों की उपस्थिति थी । संघ में सब साधु-साध्वियों की संख्या २३२ थी । उनमें ६७ साधु थे और १६५ साध्वियां थीं । 'भगवती जोड़' की ५०१ ढालों की सम्पन्नता के बाद १३ दोहे हैं । उनमें जोड़-रचन के आधारभूत ग्रन्थों का निर्देश है, रचना में किए गए संक्षेप विस्तार के हेतुओं का उल्लेख है और रचनाकार की अनाग्रही मनोवृत्ति का निदर्शन है। भगवती जैसे दुर्बोध्य और विशाल आगम की जोड़ (अनुवाद, भाष्य) करना जयाचार्य की असाधारण मेधा का स्वयंभू साक्ष्य है । उन्होंने जितनी सूक्ष्मता से आगम-समुद्र में अवगाहन किया वह उनकी लक्ष्यबद्धता और एकाग्रता का सूचक है। तिस पर भी पाठकों को अपने ग्रन्थ में संशोधन करने का अधिकार देना उनकी अनिर्वचनीय उदारता की अभिव्यक्ति है। उन्होंने लिखा है बलि कोइक पंडित प्रबल हूँ, आगम देख उदार । जे विरुद्ध वचन ह्वै सूत्र थी, ते काढं दीजो बार ॥ ९ ॥ जयाचार्य की अनाग्रही मनोवृति, सत्यनिष्ठा, पापस्ता और जिनवाणी के प्रति गहरे समर्पण के बारे में अलग से कुछ लिखने की अपेक्षा नहीं है । भगवती-जोड़ के अन्तिम चार दोहों को एक वातायन मान लिया जाए तो उसमें से झांकती हुई निर्मलता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ का वह आखिरी वातायन इस प्रकार खुलता है विण उपयोग विरुद्ध वच, जे आयो हुवै अजाण । अहो त्रिलोकी नाथजी ! तसु म्हारे नहि ताण ॥ १० ॥ म्हैं तो म्हारी बुद्धि थकी, आख्यो छ शुद्ध जाण । श्रद्धा न्याय सिद्धान्त नां दाख्या शुद्ध पिछाण ।।११।। पिण हृदयपणां थकी, कहिये बारंबार । प्रभू सिकार अर्थ प्रति, तेहिज छँ तंत सार ॥ १२ ॥ अणमिलतो जु आयो हुवै, मिश्र आयो ह्व कोय | शंका सहित यो हुर्व मिण्डामि दुक्कडं मोय ।।१३।। 1 वि. सं. १९२४ में रची गई 'भगवती जोड़' के प्रकाशन का कार्य वि. सं. २०५४ में पूरा हो रहा है। इस जोड़ की रचना में केवल पांच वर्षों का समय लगा और इसके सम्पादन में पन्द्रह वर्ष लग गए । इस आधार पर आंका जा सकता है कि श्रीमज्जयाचार्य की रचनाधर्मिता कितनी प्रखर थी। जयाचार्य को अपने इस सृजन को रूपायित करने में 'महासती गुलाब' का योग मिला । जयाचार्य रचना कर बोलते जाते और गुलाबसती लिखती रहतीं । इतिहास स्वयं को दोहराता है । तेरापन्थ के नौवें अधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी ने 'भगवती जोड़' के संपादन का संकल्प किया और मुझे उनके चरणों में बैठकर काम करने का मौका मिला। मेरे इस काम में सर्वात्मना समर्पित भाव से संभागी रही साध्वी जिनप्रभाजी । सम्पादन के प्रारंभ से लेकर उसके अन्तिम पड़ाव तक उन्होंने जिस निष्ठा, श्रमशीलता और जागरूकता से काम किया है, वह मेरे लिए प्रमोद भावना का विषय है। जोड़ की रचना की अपेक्षा सम्पादन में अधिक समय लगने के कुछ कारण हैं। उनमें सबसे बड़ा कारण था - आचार्यश्री के पास काम करने के लिए समय की सीमा । Jain Education International परमाराध्य आचार्यश्री के सान्निध्य में बैठकर सम्पादन करने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि काम में विशेष अवरोध नहीं आया । विषयगत और भाषागत समस्याओं के साथ एक बड़ी समस्या थी रागों की आचार्यवर के लिए प्रस्तुत ग्रंथ की विषयवस्तु जितनी सुबोध थी, भाषा भी उतनी ही आत्मसात् थी। रागों का जहां तक प्रश्न है, उनके अधिकृत ज्ञाता एकमात्र वे ही थे । इसलिए हमारी छोटी-बड़ी हर समस्या सहज रूप में समाहित होती गई। उनकी जागृत प्रज्ञा और संचित अनुभवों का लाभ भी हमें मिलता रहा। यदि जोड़ के सम्पादन में आचार्यवर का सतत सान्निध्य और उत्साहवर्धक प्रोत्साहन नहीं रहता तो इसमें कितना समय लगता, अनुमान लगाना भी कठिन हो रहा है। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का मार्गदर्शन इस यात्रा के हर मोड़ पर दीपक बनकर हमारा पथ प्रशस्त करता रहा है। पूज्यवरों के प्रेरणा पाथेय से निरन्तर गतिशील रहकर हमने अपनी एक मंजिल प्राप्त कर ली, यह हमारे लिए सन्तोष की बात है । 'भगवती जोड़' का समग्र रूप से सात खण्डों में प्रकाशन होने के बाद भी हमारा काम पूरा नहीं हुआ है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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