Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ १८३ २२९ २२९ १८४ १८४ २३० २३१ २३१ १८६ १८६ २३२ १८७ १८७ २३२ २३२ १९० O १९४ २३४ २३४ २३५ १९८ २३५ १९८ १९९ २४० २०१ २४० २०२ २०६ २०७ २४५ २४५ दERN० ० ० ० २४५ संयत के कर्मप्रकृति का बन्ध संयत के कर्मप्रकृति का वेदन संयत के कर्मप्रकृति की उदीरणा संयत के उपसंपद्हान संयत में संज्ञा संयत आहारक या अनाहारक संयत के भव संयत के आकर्ष-चारित्र की प्राप्ति संयत का काल संयत का अन्तर संयत में समुद्घात संयत का क्षेत्र संयत द्वारा लोक की स्पर्शना संयत किस भाव में संयत का परिमाण संयत का अल्पबहुत्व प्रतिसेवना पद आलोचना के दोष आलोचक की अर्हता आलोचनादायक की अर्हता सामाचारी पद प्रायश्चित्त पद तप पद बाह्य तप के प्रकार अनशन अवमोदरिका भिक्षाचर्या रस परित्याग कायक्लेश प्रतिसंलीनता आभ्यन्तर तप के प्रकार प्रायश्चित्त विनय के प्रकार ज्ञान विनय दर्शन विनय चारित्र विनय मन विनय वचन विनय काय विनय लोकोपचार विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय २४६ ध्यान के प्रकार आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्म ध्यान धर्म ध्यान के लक्षण धर्म ध्यान के आलम्बन धर्म ध्यान की अनुप्रेक्षा शुक्ल ध्यान शुक्ल ध्यान के लक्षण शुक्ल ध्यान के आलम्बन शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षा व्युत्सर्ग नरयिक आदि के पुनर्भव भवसिद्धिक का पुनर्भव अभवसिद्धिक का पुनर्भव सम्यक्दृष्टि का पुनर्भव मिथ्यादृष्टि का पुनर्भव सम्बन्ध योजना विषयवस्तु पाप-कर्म बन्ध-अबन्ध पद लेश्या द्वार पाक्षिक द्वार दृष्टि द्वार ज्ञान द्वार अज्ञान द्वार संज्ञोपयुक्त द्वार वेद द्वार कषाय द्वार योग द्वार उपयोग द्वार चौबीस दण्डकों के बन्ध-अबन्ध समुच्चय जीव में पाप कर्म बंध-अबंध नारकी में ३५ बोल आठ कर्मों के सन्दर्भ में बन्ध-अबन्ध अनन्तरोपपन्नकः बन्ध-अबन्ध परम्परोपपन्नक: बन्ध-अबन्ध अनन्तरावगाढः बन्ध-अबन्ध परम्परावगाढः बन्ध-अबन्ध अनन्तराहारक: बन्ध-अबन्ध परम्पराहारक: बन्ध-अबन्ध अनन्तरपर्याप्तक: बन्ध-अबन्ध परम्परपर्याप्तक: बन्ध-अबन्ध चरमः बन्ध-अबन्ध २११ २१३ २४७ २४८ २४८ २४९ २४९ २१४ २१६ २१७ २१७ २१७ २२० xx २५० २५३ २५४ २२० २२१ २७० २७१ २७१ २२३ २२३ २२४ २२५ २२७ २२८ २२८ 2 २७२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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