Book Title: Bhagavati Jod 07
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१२. एकादसमुद्देश के
तेह विशेषण करि जिके,
१३. मिथ्यात्वे वर्तमान जे, तेह विशेषण करि अर्थ
1
१४. पणवीसम शत नैं विषे, प्रथम उद्देशक नौ हिवे,
सम्बन्दष्टिज कहवा अर्थ
१७. प्रथम शतक में जिम तिमहिज कहियूँ छे
मिथ्यादृष्टि द्वादशमें फुन
१५. ति काले ने तिण समय,
नगर राजगृह ताम । यावत गौतम इम वदै, श्री जिन प्रति शिर नाम ||
गोय। सुजोय ॥
२०. भवणपति ने व्यंतरा जी, ए च्या देव नीं जी,
कहाय | आय ॥
||
बार
उदेशक अर्थं । कहिये आदि तदर्थं ।
*
• प्रभुजी बागरे अमृत वाणी ।
१६. हे भगवंतजी ! केतली जी, लेश्या परूपी स्वाम ? जिन कहै षट लेश्या कही जी, कृष्ण प्रथम नों नाम । गुणीजन ! कृष्ण प्रथम नो नाम ॥ का जी, द्वितीय उद्देशक मांहि । इहां जी, वेश विभागंज ताहि ॥ गुणीजन ! लेश विभागज ताहि ॥ १८. अल्पबहुत्व पिण तेहनीं जी ते इहविध कहिवाय । प्रभु! जीव सतेशी कृष्णादि नीं जी, इत्यादि अल्पबहुत्वाय ।।
प्रभुजी रा शीष गोयम गुणवाणी ।। (धुपदं )
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१९. किहां लग कहिवुं तिको जी, जाव चतुविध देव । अल्पबहुत्व तेहनीं जिंका जी, ते कहिवी स्वयमेव ॥
• लय पंथीड़ो बोले अमृतवाणी
*
४ भगवती जोड़
२१. फुन चिहुं विध देवी तणीं जी, मिश्र तणी पिण जोय । अल्पबहुत्व कहिवी इहां जी, बर जिन वच अवलोय ।।
दूहा
२२. अल्पबहुत्व प्रकरण कह्य ू, ते संसारिक नां जोग्य में
ज्योतिषी ने वैमानीय । अल्पबहुत्व कथनीय ||
वा० - प्रथम शतक में ए बात आवी । तेहनों पुनरुच्चारण किम ? इम प्रश्नोत्तर करता टीकाकार कहै छे
क्या तणोंज एह । अल्पबहुत्व हिव लेह ॥
१२.११. सम्मा
'सम्म' ति एकादचे सम्यग्दृष्टिविशेषाः ११)
१३. १२. मिच्छे य
'मिच्छे य' त्ति द्वादशे मिथ्यात्वे दृष्टिविशेषणा इत्यर्थ: १२ १४. उसा संग्रहणीगाथा
'उद्देस' त्ति एवमिह शते द्वादशोद्देशका भवन्तीति । तच प्रथमोशको व्याख्यायते (पू.प. ५२) १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी
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(पु. प. ८५२)
१६. कति णं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - कहलेसा
१७. जहा पबिलिए उसए उहेब लेस्साविभागो ।
वर्त्तमाना मिथ्या(बु.प. ५२)
१८. पाव च
'अप्पाबहुयं च ' त्ति तच्चैवम्— 'एएसि णं भंते ! जीवाणं सनेस्ताणं कण्हलेस्सा' मित्यादि
(पु.प. ०५२)
२०. तच्चैवम् – 'एएसि णं वाणमंतराणं जोइसियाणं
१९. जाव चउव्विहाणं देवाणं
अथ कियद्दूर ताम्यमित्याह-- 'जाब चउबिहा देवा' मित्यादि (4.9: =x8) भंते ! भवगवासीर्ण वेमाणियाणं देवाण य (बृ. प. ५२) २१. चउव्विहाणं देवीगं मीसगं अप्पाबहुगंति ।
(म. २५०१) वा. अथ प्रथमशते उक्तमप्यासां स्वरूपं कस्मात्पुनरप्युच्यते ? उच्यते प्रस्तावान्तरायातत्वात्, (पू.प. ५२)
२२. इह संसारसमापन्नजीवानां योगात्पबहुत्वं वक्तव्यमिति तत्प्रस्तावालेश्याकरणमुक्तं,
(बृ. प. ५२)
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