Book Title: Bauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Author(s): Dharmchand Jain, Shweta Jain
Publisher: Bauddh Adhyayan Kendra

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Page 123
________________ साम्प्रदायिक सद्भाव और बौद्ध धर्म * 121 अवण्णं भासेय्यु, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, संघस्स वा अवण्णं भासेय्यं, तत्र चे तम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हें येवस्स तेन अन्तरायो। अर्थात् कोई मेरी या मेरे धर्म या संघ की निन्दा करे, इस कारण तुम्हें उसके प्रति न वैर करना चाहिए, न असन्तोष और न क्रोध ही। क्योंकि भिक्षुओं! यदि कोई मेरी, धर्म तथा संघ की निन्दा करे, उस पर तुम वैर, असन्तोष या क्रोध प्रकट करोगे तो इससे तुम्हारी धर्म साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः तुम्हें निन्दा करने वाले की बात पर विचार करना चाहिए कि उसमें कितना सत्य है और कितना असत्य। सत्य को स्वीकार कर, असत्य को मिथ्या समझकर त्याग देना चाहिए। तथागत द्वारा दिया गया यह उपदेश आज भी प्रासंगिक है। वर्तमान में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलने में एक महत्त्वपूर्ण कारण है- अपने धर्म उपदेष्टा को सर्वोच्च मानना। इस बात को लक्ष्य में रखते हुए 'वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ रिलीजन्स फॉर पीस' संस्था ने अपने कार्य करने के स्वीकारोक्ति, समझौता एवं कार्यप्रणाली ये तीन आधार माने हैं 1. स्वीकारोक्ति- इसके अन्तर्गत सभी धर्मों के लोग मुक्त कण्ठ से इस तथ्य को स्वीकार करेंगे कि सभी धर्मों के सिद्धान्त पवित्र और पावन हैं। ... 2. समझौता- इसमें सभी धर्मावलम्बी सर्वसम्मति से सहमत होंगे कि सभी धर्मो के लोग आपस में मिलेंगे, अपने-अपने धर्म के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे, धर्म की व्याख्या भी करेंगे, लेकिन किसी के धर्मपरिवर्तन का प्रयास नहीं करेंगे। 3. कार्यप्रणाली- शांति, सौहार्द तथा मानवीय प्रेम की स्थापना की दिशा में सभी धर्मों के लोग अपने-अपने धर्मों की विशेषताओं व श्रेष्ठ गुणों की व्याख्या तो करेंगे, लेकिन दूसरे धर्मो की बुराई कतई नहीं करेंगे, इसे शांति-स्थापना व धार्मिक समरसता की कार्यप्रणाली कहेंगे। सम्प्रदाय सद्भाव के बाह्य उपाय सम्प्रदाय-सद्भाव के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत कहां है-"हर व्यक्ति को इस बात का बुनियादी अधिकार है कि वह अपने विवेक और अंत:करण के अनुसार धार्मिक विश्वास को न केवल माने बल्कि अपनी आस्था और मान्यताओं को अपने धर्म में निर्दिष्ट या स्वीकृत कार्यों के रूप में प्रचारित भी कर सकता है। इतना ही नहीं दूसरों के उन्नयन के लिए अपने धार्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार करने का भी उसे बुनियादी अधिकार है। अनुच्छेद 2. दीघनिकाय पालि, सीलक्खन्ध वग्ग, ब्रह्मजालसुत्त, अनुच्छेद 5, सम्पादक एवं अनुवादक-स्वामी द्वारिकादास शास्त्री, बौद्ध भारती, वाराणसी, 2005, भाग 1, पृ. 5 3. 'धर्म, सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीयता', राजस्थान प्रकाशन, जयपुर, 2010, हमारी बात' पृ. 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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