Book Title: Bauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Author(s): Dharmchand Jain, Shweta Jain
Publisher: Bauddh Adhyayan Kendra

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Page 163
________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन * 161 जयशंकर प्रसाद भी दुःख को जीवन-सत्य के रूप में देखते हैं, किन्तु वे इसके निषेधमूलक रूप को नहीं विधिमूलक स्वरूप को स्वीकार करते हैं। इसे वे ईश्वर के रहस्यमय वरदान के रूप में ग्रहण करते हैं। बौद्धों की विचारधारा से प्रभावित होकर ही प्रसाद ने 'अजातशत्रु' में 'दुःख का भँवर चला कराल चाल में लिखा है। 'स्कन्दगुप्त' में वे कहते हैं कि 'उमड़ रहा इस भूतल पर दुःख का पारावार और 'आँस' में तो वे स्पष्ट कह देते हैं कि 'वेदना विकल फिर आई मेरी चौदहों भुवन में, सुख कहीं न दिया दिखाई विश्राम कहाँ जीवन में"। इतना ही नहीं चंद्रगुप्त' में वे स्पष्ट ही लिख गये हैं कि 'मैं स्वयं हृदय से बौद्ध मत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक - इतना ही कि संसार दुःखमय है।' _ 'कामायनी' महाकाव्य में प्रत्यभिज्ञा-दर्शन प्रमुख है, पर वहाँ भी इस दुःखवादी विचारधारा का यत्र-तत्र संकेत है। यहाँ जयशंकर प्रसाद सुख और दुःख को दिन एवं रात की भाँति निरन्तर आने-जाने वाला बताते हैं, परन्तु वे संसार में दुःख की प्रबलता स्वीकार करते हैं, इसी कारण कभी 'दुःख जलधि का नाद अपार'' सुनते हैं तो कभी 'व्यथा की नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणिगण द्युतिमान' कहते हैं, ऐसे ही कभी उन्हें 'नभ-नील लता की डालों में इस दुःखमय जीवन का प्रकाश'' उलझा हुआ दिखाई देता है तो कभी 'कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आस-पास' 10 प्रतीत होते हैं। इसी भाँति कभी उन्हें यह विश्व हलचल से विक्षुब्ध दिखाई देता है' ", तो कभी इस विश्व में 'दुःख की आँधी' एवं पीड़ा की लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं। इसी प्रकार कभी उन्हें जीवन एक 'विकट पहेली' जान पड़ता है, तो कभी संसार इंद्रजाल प्रतीत होता है, जिसमें अपार व्यथा है। वैसे प्रसाद बौद्धों की भाँति संसार में केवल दुःख ही दुःख नहीं मानते, वे संसार को सुख-दुःखमय मानते हैं - 2. अजातशत्र, जयशंकर प्रसाद, पृ. 93 3. स्कंदगुप्त, जयशंकर प्रसाद, पृ. 41 4. आँसू, पृ. 55 5. चन्द्रगुप्त, जयशंकर प्रसाद, साहित्यागार, जयपुर, 1994 पृ. 71 6. कामायनी, जयशंकर प्रसाद, पृ. 53 7. वही, पृ.8 8. वही, पृ: 54 9. वही, पृ. 185 10. वही, पृ. 158 11. वही, पृ. 221 12. वही, पृ. 223 13. वही, पृ. 229 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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