Book Title: Bauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Author(s): Dharmchand Jain, Shweta Jain
Publisher: Bauddh Adhyayan Kendra

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Page 165
________________ प्रसाद साहित्य में बौद्ध दर्शन * 163 'स्कंदगुप्त' में भी यही विचारधारा है, प्रसाद इस नाटक में लिखते हैं- 'मनुष्य की अदृश्य लिपि वैसी ही है, जैसी अग्नि रेखाओं से कृष्ण मेघ में बिजली की वर्णमाला- एक क्षण मेघ में बिजली की वर्णमाला- एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होने वाली। 'आँसू' में इस क्षणिकता की ओर संकेत करते हुए मानव-जीवन को दो घड़ियों का बताया गया है।18 । कामायनी में भी इस क्षणिकवाद के संकेत मिलते हैं, किन्तु यहाँ आकर प्रसाद बौद्धों की भाँति जीवन को तो क्षणिक मानते हैं, पर विश्व को क्षणिक नहीं मानते। उसे नित्य एवं सत्य बतलाते हैं जिसमें मिलन-विरह सुख-दुःख आदि बने रहते हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि यह विश्व चिति की इच्छानुसार निरन्तर रूप बदलता रहता है और इसी कारण क्षणिक दिखाई देता है। 3. करुणा __प्रसाद की दार्शनिक विचारधारा में करुणा' का विशेष स्थान है। प्रसाद पर इस विचारधारा का प्रभाव बौद्ध एवं वैष्णव दोनों दर्शनों से पड़ा है। बौद्ध-दर्शन में बोधिसत्त्व का चरम लक्ष्य 'महाकरुणा' की प्राप्ति बताया गया है। महायान संप्रदाय के अनुसार बुद्ध वही प्राणी बन सकता है जिसमें प्रज्ञा के साथ 'महाकरुणा' का भाव विद्यमान रहता है। 'बोधिचर्यावतार-पंजिका' के अनुसार महाकरुणा की प्राप्ति से ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाती है, मनुष्य के 'स्व' की परिधि में संसार के सभी प्राणी आ जाते हैं। जीवात्मा के जीवन का उद्देश्य जगत् का परम मंगल साधन हो जाता है। इसके अतिरिक्त बौद्ध तंत्रों में आदि बुद्ध की चार भावनाएं बताई गई हैं- 1. मैत्री, 2. करुणा, 3. मुदिता, और 4. उपेक्षा। इनमें भी करुणा सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसी भावना के साथ विशुद्ध योग की प्राप्ति होती है। इन चारों का उल्लेख पातंजल- योगदर्शन में भी मिलता है- सुखी व्यक्ति में मैत्री की भावना करने से, दु:खी व्यक्ति में करुणा की भावना से, पुण्यवान व्यक्ति में मुदिता (प्रसन्नता) की भावना से तथा अपुण्यवान व्यक्ति में उपेक्षा की भावना रखने से चित्त का प्रसादन अथवा परिष्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में करुणा को शान्ति प्राप्त. योगी का एक लक्षण माना गया है और कहा गया है कि जो व्यक्ति परमशांति को प्राप्त कर लेता है वह समस्त प्राणियों से द्वेष रहित हो जाता है, सबके साथ मित्रवत् आचरण करता है और सभी के प्रति करुणा-भाव रखता है।20 नरसी मेहता भी कहते हैं- 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे', महात्मा गाँधी को भी यह गीत बहुत प्रिय था। अतः बौद्ध एवं वैष्णव सभी भारतीय 17. स्कन्दगुप्त, पृ. 126 18. आँसू, पृ. 45 19. पातंजल योगसूत्र, 1/33 20. श्रीमद्भगवद्गीता, 12,13 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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