Book Title: Bauddh Dharm Darshan Sanskruti aur Kala
Author(s): Dharmchand Jain, Shweta Jain
Publisher: Bauddh Adhyayan Kendra

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Page 175
________________ बौद्ध धर्म-दर्शन में कर्म की अवधारणा * 173 नहीं किया जा सकता है। चूंकि प्रत्येक क्षण विशिष्ट है और इस प्रकार भोग का क्षण फल के साथ एकात्मक नहीं हो सकता है। न्यायवार्तिक के अनुसार यहाँ कृतविनाश और अकृताभ्यागम दोष प्रसक्त होता है तदेवमकृतकृताभ्यागमविनाशदोषप्रसङ्गः? बौद्ध मतानुसार विज्ञानों के कारण कार्यभाव से जैसे स्मृति हो जाती है, उसी तरह कारण कार्यभाव से ही कर्तृत्व व भोक्तृत्व की व्यवस्था हो जाती है। जिस प्रकार धान के बीज से अंकुर पैदा होता है, बीज के नष्ट हो जाने पर भी पौधे आदि की उत्पत्ति होकर पुनः धान्यबीज का प्रादुर्भाव होता है; इसी प्रकार कारण-कार्य रूप से व्यवस्थित जो चित्त सन्तति है उसके चित्तों में विपाक दशा को प्राप्त हुए कर्मों से फलोत्पत्ति हो जाती है। अथवा जिस प्रकार लाक्षारस से भावित बीजों के वपन से उसके पुष्प फल और कपास आदि में रक्तता आ जाती है; इसी प्रकार एक चित्तसन्तति के किसी विज्ञान क्षण के कर्म का फल आगे वाले विज्ञान क्षणों को प्राप्त होता है। इसी तथ्य का समर्थन न्यायवार्तिक के तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र करते हैं कि जिस काया से उपलक्षित कोई चित्तसन्तान होता है वही दूसरी काया में जाकर फल भोगता है "येन कायेनोपलक्षितः कश्चिच्चित्तसन्तानः स कायान्तरवर्त्यपि फलं भुङ्क्त इत्यर्थः"118 निष्कर्षतः यह सिद्धान्तित होता है कि जिस काया में रहने वाली चित्त सन्तति के 'प्रवाह का कोई चित्त क्षण कर्म करता है उसी चित्त सन्तति का अन्य क्षण उस कर्म का फलभाक् बनता है। अतः जो चित्तसन्तति कर्म करती है वही फलभाक भी होती है, अन्य नहीं। अतः यहाँ कृतनाश या अकृताभ्यागम जैसा कोई दोष प्रसक्त नहीं होता है। ___विसुद्धिमग्ग में इसी प्रकार का मन्तव्य प्रकट करते हुए बुद्धघोष का कहना है कि कर्म के कारण स्कन्धों का जन्म होता है वे वहीं समाप्त हो जाते हैं। उनके स्थान पर अगले जन्म में पहले के कर्मों के कारण अन्य स्कन्धों का जन्म होता है। पूर्व जन्म से. इस जन्म में एक ही अवस्था नहीं आती है तथा कर्म के कारण उत्पन्न स्कन्ध पूर्ववत् विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। आगामी जीवन में फिर भिन्न स्कन्ध जन्म लेंगे तथा एक भी अवस्था इस जीवन से आगामी जीवन में संक्रमित नहीं होगी। 17. न्यायवार्तिक, पृ. 350 18. न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका, पृ. 506 19. विसुद्धिमग्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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