Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 334
________________ return to the tendonte teretetsteste tratatatatatatatatatatatatatatatatan १२१४ जैनग्रन्थरत्नाकरे krtekuttitutstakottitutetaketotketrkuttekakutekuttiytotokuteketakkaruttitkatek tar संसारी उद्धार तज, धरै रोक पर प्यार । ज्ञानी रोक न आदरै, करै दरव उद्धार ॥ ३६ ॥ कारण कान न जो लखै, मेद अभेद न जान। वस्तुरूप समुझे नहीं, सो मूरख परधान ॥ ३७ ॥ देव धर्म गुरु ग्रन्थ मत, रल जगतमें चार । सांचे लीजे परखिके, झूठे दीजे डार ॥ ३८॥ अठारहदूषणरहित, देव सुगुरु निरग्रंथ । ॐ धर्म दया पूरवअपर, मतअविरोधि सुग्रन्थ ॥ ३९ ॥ मुनिकै वाणी जैनकी, जैन धरै मन ठीक । जैनधर्म विन जीवकी, जै न होय तहकीक ॥ १० ॥ 7 उपजै उर सन्तुष्टता, दृग दुष्टता न होय । मिटै मोहमदपुष्टता, सहज सुष्टता सोय ॥४१॥ इति वैद्यलक्षणादि प्रस्ताविक कविता. rrotrkukkuttitutateketxuttekxtitutet.ttitut.tskstituttituttitutnikitatutetatitutxkaktitute ___ अथ परमार्थवचनिका लिख्यते। एक जीवद्रव्य ताके अनंत गुण अनन्त पर्याय. एक एक गुणके असंख्यात प्रदेश, एक एक प्रदेशनिविषै अनन्त । ॐ कर्मवर्गणा, एक एक कर्मवर्गणाविषै अनन्त अनन्त पुद्गल परमाणु ॐ एक एक पुद्गल परमाणु अनन्त गुण अनंत पर्यायसहित है। विराजमान. यह एक संसारावस्थित जीव पिंडकी अवस्था. याहीभांति अनन्त जीवद्रव्य सपिंडरूप जानने. एकजीव द्रव्य ।

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