Book Title: Badmer Aur Mumbai Hastlikhit Granth Suchipatra
Author(s): Seva Mandir Ravti Jodhpur
Publisher: Seva Mandir Ravti Jodhpur
View full book text
________________
० संकेत ०
मोटे तौर पर यह सूचीपत्र प्रचलित केटेलोगस केटेलोगोरम (Catalogus Catalogorum) पद्धति व भारत सरकार द्वारा निर्धारित प्रपत्रानुसार बनाया गया है । ग्रन्थों का विभागीकरण विषय सूची के अनुसार है। वह भी लगभग सरकारी विषय विभाजन से मेल खाता है। चूंकि यह सूची पत्र न ज्ञान भण्डारों का है इसलिये इसमें जैन ग्रंथों को बहुतायत है। यद्यपि सरकारी प्रपत्र के अनुसार सभी प्रकार के जैन ग्रंथों को केवल एक ही भाग नम्बर सातव में डाला जाता है परन्तु हमने आवश्यक समझकर इन जैन ग्रन्थों को चार भागों 1 से 4) में बांटा है जिनके पुनः क्रमशः 2+2+3+-2 कुल मिलाकर 9 विभाग किये हैं और पहिले भाग के दूसरे विभाग के पांच उप विभाग किये हैं । अतः भाग 1 से 4 तक सभी विभाग व उपविभाग मिलकर सरकार द्वारा निर्धारित सातवें भाग के ही अन्तर्गत आते हैं । भाग 5 नेत्तर धार्मिक ग्रन्थों का है जिसमें सरकार द्वारा निर्धारित भाग 1 से 10 (केवल उपरोक्त भाग 7 छोड़कर) इन 9 भागों के ग्रन्थों का समावेश है और उन्हें क्रमशः (अ) से (ओ) तक विभाजित कर दिया है। इसी प्रकार इस सूची पत्र के भाग 6, 7, 8 और 9 में क्रमशः परकारी निर्धारित भाग 11, 12 से 16, 23 124 के ग्रंथों को अलग-अलग दिखा दिया है। और चुकि भाग 17 से 22 व 25 तक के ग्रन्थ बिल्कुल थोड़े हैं अतः उन्हें इस सूचीपत्र के अन्तिम भाग 10 में अवर्गीकृत शेष रूप में दिखा दिया गया है।
जैन ग्रन्थों के भाग विभाग व उपविभाग के शीर्षकों को देखने से सारा विभाजन लगभग स्पष्ट हो जावेगा । हम आगमों की संख्या के विवाद में नहीं पड़ना चाहते है और जो कोई भी ग्रन्थ किसी भी सम्प्रदाय द्वारा आगम माना जाता है वह हमने प्रागम में ले लिया है। चूंकि साम्प्रदायिक खण्डन मण्डन विशेषकर धार्मिक क्रिया काण्ड से सम्बन्ध रखते हैं अतः इसे उस भाग का ही एक विभाग बना दिया है।
तथा अमुक ग्रन्थ किस विभाग में डाला जाना चाहिये इस बारे में कई बार एक से अधिक मत संभव होते है अथवा एक ही ग्रन्थ में विविध प्रकार की विषय वस्तु होती है अतः एकदम निर्विवाद शुद्ध विभाजन असंभव है और जो विभाजन किया गया है उसके लिये एकान्त रूप से हमारा आग्रह भी नहीं है।
सूचीपत्र के स्तम्भों में दी गई सूचना को मुख्यतः दो भागों में बांट सकते है-कुछ स्तम्भों की बोगत तो उस ग्रन्य से सम्बन्ध रखती है और कुछ स्तम्भों की बोगत उस प्रति विशेष से ही सम्बन्धित है। अब हम प्रत्येक स्तम्भ का थोड़ा विश्लेषण करना उपयुक्त समझते हैं
स्तम्भ 1-क्रमांक :
इसमें हमने विभागोय, यो जहाँ है वहाँ उपविभागीय क्रमांक दिया है। सामान्य अनुक्रमांक सारे ग्रंप तक एक ही चालू रखा जा सकता था परन्तु हमारी राय में विभागीय संख्या का महत्व अधिक है और मुद्रण प्रादि में सुविधाजनक भी है । वैसे विषय सूची में कुल प्रतियों की संख्या का योग आ ही गया है । साधारणतया हर प्रति की अलग प्रविष्टि करके विभागीय क्रमांक दे दिया गया है। परन्तु कई ग्रंथों की पर्वाचीन प्रतियां जो अति सामान्य हैं और पाठ भेद आदि दृष्टिकों से महत्वहीन हैं उनकी प्रविष्टि एक साथ कर दी गई है लेकिन वहां भी जितनी प्रतिणं हैं उतने क्रमांक दे दिये है। (देखिये पृष्ठ 8 अन्तकृतदशाङ्ग सूत्र 20 प्रतियें एक साथ में, क्रमांक 153 से 172) । इस तरह सूची पत्र को अनावश्यक रूप से बड़ा नहीं होने दिया है । इसके विपरीत जिस सयुक्त प्रति में एक से अधिक उल्लेखनीय ग्रन्य हैं उन सभी ग्रन्पों की अलग-अलग प्रविष्टियां विभागानुसार बकारादिक्रम से बीगतवार यथा-स्थान कर दी है और क्रमांक दे दिये है। और चकि ऐसी प्रत्येक प्रविष्टि में पन्नों की संख्या पूरी प्रति को ही लिखी है, जो भ्रमोत्पादक न हो जाए इसलिए पन्नों की संख्या पर तारे का चिन छगा दिया है । तथा जहाँ मावश्यक समझा गया है वहां संयुक्त प्रति के प्रथम ग्रन्थ की प्रविष्टि देखने की सूचना कर दी गई है।