Book Title: Atmaprabodh
Author(s): Jinlabhsuri
Publisher: Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबोधः आत्म- ) संसारगहने ब्रांत्वा नव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिहारिवेगोहामानपाषाणघोलनाक स्पेन कथमप्यनानोगनिवर्तितयथाप्रवृत्तिकरणेन परिणामविशेषरूपेण प्रवृतं कर्म निर्जरयन्नपं च बनन् संझित्वमासाद्यायुर्वर्जसप्तकर्माणि पश्योपमासंख्येयत्नागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति. अत्रांतरे जंताईकर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः कर्कशनिविमचिरप्ररूढगुपिलवक्रग्रंथिवद्र्भेदा अनिन्नपूर्वो ग्रंथिर्भवति. मं च प्रथिं यावदभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म दपयित्वा अनंतशः समागबंति, ग्रंथिदेशे च वर्त्तमानोऽनव्या नव्यो वा संख्येयमसंख्येयं वा कालं तिष्ठति, तत्र चाचव्यः कश्चिच्चक्रवर्तिप्रभृत्यनेकपतिक्रियमाणप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानोत्तमसाधुनिरीक्षणाजिनऋछिदर्शनाडा स्वर्गसुखाद्यर्थित्वाहा दीदाग्रहणेन व्यसाधुत्वं संप्राप्य स्वमहत्त्वाद्यगिलाषेण नावसाधुवत्प्रत्युपेदाणादिक्रियाकलापं समाचरति. कि. | यावलादेव चोत्कर्षतो नवमग्रैवेयकपर्यतमपि गडति. कश्चित्पुनर्नवमपूर्वपर्यतं सूत्रपा For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 572