Book Title: Appa so Paramapa
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 5
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन और भी देखिये "जे पूरब शिव गये जाहि अरु आगे जैहैं। सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहै हैं । आज तक जितने भी जीव अनन्त सुखी हुए हैं अर्थात् मोक्ष गये हैं या जा रहे हैं अथवा भविष्य में जावेंगे, वह सब ज्ञान का ही प्रताप है-ऐसा मुनियों के नाथ जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान की तो अनन्त महिमा है ही, पर सम्यग्दर्शन की महिमा जिनागम में उससे भी अधिक बताई गई है, गाई गई है। क्यों और कैसे ? मान लो रिक्शा चलाने वाला वह करोड़पति बालक अब २५ वर्ष का युवक हो गया है। उसके नाम से जमा करोड़ रुपयों की अवधि समाप्त हो गई है, फिर भी कोई व्यक्ति बैंक से रुपये लेने नहीं आया। अतः बैंक ने समाचार-पत्रों में सूचना प्रकाशित कराई कि अमुक व्यक्ति के इतने रुपये बैंक में जमा हैं, वह एक माह के भीतर नहीं आया तो लावारिस समझकर रुपये सरकारी खजाने में जमा करा दिये जावेंगे। उस समाचार को उस नवयुवक ने भी पढ़ा और उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा, पर उसकी वह प्रसन्नता क्षणिक साबित हुई, क्योंकि अगले ही क्षण उसके हृदय में संशय के बीज अंकुरित हो गये। वह सोचने लगा कि मेरे नाम इतने रुपये बैंक में कैसे हो सकते हैं ? मैंने तो कभी जमा कराये ही नहीं। मेरा तो किसी बैंक में कोई खाता भी नहीं है। फिर भी उसने वह समाचार दुबारा बारीकी से पढ़ा तो पाया कि वह नाम तो उसी का है, पिता के नाम के स्थान पर भी उसी के पिता का नाम अंकित है, कुछ आशा जागृत हुई, किन्तु अगले क्षण ही उसे विचार आया कि हो सकता है, इसी नाम का कोई दूसरा व्यक्ति हो और सहज संयोग से ही उसके पिता का नाम भी यही हो। इस प्रकार वह फिर शंकाशील हो उठा। इस प्रकार जानकर भी उसे प्रतीति नहीं हुई, इस बात का विश्वास जागृत नहीं हुआ कि ये रुपये मेरे ही हैं। अतः जान लेने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। इससे सिद्ध होता है कि प्रतीति बिना, विश्वास बिना जान लेने मात्र से भी कोई लाभ नहीं होता। अतः ज्ञान से भी अधिक महत्व श्रद्धान का है, विश्वास का है, प्रतीति का है। इसी प्रकार शास्त्रों में पढ़कर हम सब यह जान तो लेते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है (अप्पा सो परमप्पा), पर अन्तर् में यह विश्वास जागृत नहीं होता कि मैं स्वयं ही परमात्मस्वरूप हैं, परमात्मा हूँ, भगवान हूँ। यही कारण है कि यह बात जान लेने पर भी कि मैं स्वयं परमात्मा हूँ, सम्यकश्रद्धान बिना दुःख का अन्त नहीं होता, चतुर्गतिभ्रमण समाप्त नहीं होता, सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती। समाचार-पत्र में उक्त समाचार पढ़कर वह युवक अपने साथियों को भी बताता है। उन्हें समाचार दिखाकर कहता है कि 'देखो, मैं करोड़पति हूँ । अब तुम मुझे गरीब रिक्शेवाला नहीं समझना।' १. पंडित दौलतशम : छहढाला, चतुर्थ ढाल, छन्द ८ । खण्ड ४/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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