Book Title: Appa so Paramapa Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 8
________________ १२ अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य को देख, सम्पूर्ण जगत पर से दृष्टि हटा और स्वयं में ही समा जा, उपयोग को यहाँ-वहाँ न भटका, अन्तर् में जा, तुझे निज - परमात्मा के दर्शन होंगे । ज्ञानी गुरु की करुणा-विगलित वाणी सुनकर वह निकट भव्य जीव कहता है "प्रभो ! यह आप क्या कह रहे हैं, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ? मैंने तो जिनागम में बताये भगवान बनने के उपाय का अनुसरण आज तक किया ही नहीं है । न जप किया, न तप किया, न व्रत पाले और न स्वयं को जाना-पहचाना - ऐसी अज्ञानी - असंयत दशा में रहते हुए मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ ?" अत्यन्त स्नेहपूर्वक समझाते हुए ज्ञानी धर्मात्मा कहते हैं "भाई, ये बनने वाले भगवान की बात नहीं है, यह तो बने बनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है । ऐसा जानना - मानना और अपने में ही जम जाना, रम जाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है। तू एक बार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर, अन्तर् की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि पर-पदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव - सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तु अन्तर् में समा जायगा, लीन हो जायगा, समाधिस्थ हो जायगा । ऐसा होने पर तेरे अन्तर् में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा। एक बार ऐसा स्वीकार करके तो देख !" "यदि ऐसी बात है तो आज तक किसी ने क्यों नहीं बताया ?" " जाने भी दे, इस बात को, आगे की सोच । " "क्यों जाने दें ? इस बात को जाने बिना हम अत्यन्त दुःख उठाते रहे, स्वयं भगवान होकर भी भोगों के भिखारी बने रहे, और किसी ने बताया तक नहीं ।" " अरे भाई, जंगत को पता हो तो बताये, और ज्ञानी तो बताते ही रहते हैं, पर कौन सुनता है उनकी, काललब्ध आये बिना किसी का ध्यान ही नहीं जाता इस ओर । सुन भी लेते हैं तो इस कान से सुनकर उस कान से बाहर निकाल देते हैं, ध्यान नहीं देते । समय से पूर्व बताने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होता । अतः अब जाने भी दो पुरानी बातों को, आगे की सोचो । स्वयं के परमात्मस्वरूप को पहचानो, स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानो और स्वयं में समा जावो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। कहते-कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है । जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णतः उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिन्ह चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है । आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरम्भ मुक्ति के मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है Jain Education International " चक्रवर्ती की सम्पदा अरु इन्द्र सारिखे भोग | कागबीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग ॥ ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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