Book Title: Appa so Paramapa
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 10
________________ अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल यद्यपि अभी वह वही मैला-कुचैला फटा कुर्ता पहने है, मकान भी टूटा-फूटा ही है, क्योंकि ये सब तो तब बदलेंगे, जब रुपये हाथ में आ जावेंगे। कपड़े और मकान श्रद्धा-ज्ञान से नहीं बदल जाते, उनके लिए तो पैसे चाहिए, पैसे, तथापि उसके चित्त में आप कहीं भी दरिद्रता की हीन भावना का नामोनिशान भी नहीं पायेंगे। __ उसी प्रकार जीवन तो सम्यक्चारित्र होने पर ही बदलेगा, अभी तो असंयमरूप व्यवहार ही ज्ञानी-धर्मात्मा के देखा जाता है, घर उनके चित्त में रंचमात्र भी हीन भावना नहीं रहती, ये स्वयं को भगवान ही अनुभव करते हैं। जिस प्रकार उस युवक के श्रद्धा और ज्ञान में तो यह बात एक क्षण में आ गई कि मैं करोड़पति हैं, पर करोड़पतियों जैसे रहन-सहन में अभी वर्षों लग सकते हैं। पैसा हाथ में आ जाय, तब मकान बनना आरम्भ हो, उसमें भी समय तो लगेगा ही। उस युवक को अपना जीवन-स्तर उठाने की जल्दी तो है पर अधीरता नहीं, क्योंकि जब पता चल गया है तो रुपये भी अब मिलेंगे ही, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, वरसों लगने वाले नहीं हैं / उसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान तो क्षणभर में परिवर्तित हो जाते हैं, पर जीवन में संयम आने में समय लग सकता है / संयम धारण करने की जल्दी तो प्रत्येक ज्ञानी-धर्मात्मा को रहती ही है, पर अधीरता नहीं होती, क्योंकि जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान और संयम की रुचि (अंश) जग गई है तो इसी भव में, इस भव में नहीं तो अगले भव में, उसमें नहीं तो उससे अगले भव में, संयम भी आयेगा ही, अनन्तकाल यों ही जाने वाला नहीं है। अतः हम सभी का यह परम पावन कर्तव्य है कि हम सब स्वयं को सही रूप में जानें, सही रूप में पहचानें, इस बात का गहराई से अनुभव करें कि स्वभाव से तो हम सभी सदा से ही भगवान ही हैं-इसमें शंका-आशंका के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है / रही बात पर्याय की पामरता की, सो जब हम अपने परमात्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान कर उसी में अपनापन स्थापित करेंगे, अपने ज्ञानोपयोग (प्रगटज्ञान) को भी सम्पूर्णतः उसी में लगा देंगे, स्थापित कर देंगे और उसी में लीन हो जावेंगे, जम जावेंगे, रम जावेंगे, समा जावेंगे, समाधिस्थ हो जावेंगे तो पर्याय में भी परमात्मा (अरहंतसिद्ध) बनते देर न लगेगी। ___अरे भाई ! जैनदर्शन के इस अद्भुत परमसत्य को एक बार अन्तर् की गहराई से स्वीकार तो करो कि स्वभाव से हम सभी भगवान ही हैं / पर और पर्याय से अपनापन तोड़कर एक बार द्रव्यस्वभाव में अपनापन स्थापित तो करो. फिर देखना अन्तर में कैसी क्रान्ति होती है, कैसी अद्भुत और अपूर्व शान्ति उपलब्ध होती है, अतीन्द्रिय आनन्द का कैसा झरना झरता है। इस अद्भुत सत्य का आनन्द मात्र बातों से आने वाला नहीं है, अन्तर में इस परमसत्य के साक्षात्कार से ही अतीन्द्रिय आनन्द का दरिया उमड़ेगा। उमड़ेगा, अवश्य उमड़ेगा, एक बार सच्चे हृदय से सम्पूर्णतः समर्पित होकर निज-भगवान आत्मा की आराधना तो करो, फिर देखना क्या होता है ? बातों से इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है / अतः यह मंगलभावना भाते हुए विराम लेता हूँ कि सभी आत्माएँ स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानकर, पहचानकर स्वयं में ही जमकर, रमकर अनन्त सुख-शान्ति को शीघ्र ही प्राप्त करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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