Book Title: Appa so Paramapa
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 9
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन पिता के मित्र रिक्शेवाले नवयुवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कह रहे थे । उनकी यह बात रिक्शे पर बैठे-बैठे हो ही रही थी। इतने में एक सवारी ने आवाज दी "ऐ रिक्शेवाले ! स्टेशन चलेगा?" उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया-"नहीं।" "क्यों ? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये लेना, पर चलो, जल्दी चलो।" "नहीं, नहीं जाना, एक बार कह दिया न !" “कह दिया पर..." उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायगा? यदि ले जायेगा तो कितने में ? दस रुपये में, बीस रुपये में........? क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा। "क्यों ?" "क्योंकि अब वह करोड़पति हो गया है।" "अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं ?" "कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा, क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते।" इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति को आत्मानुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रकट हो जाता है, तब उसके आचरण में भी अन्तर आ ही जाता है । यह बात अलग है कि वह तत्काल पूर्ण संयमी या देशसंयमी नहीं हो जाता, फिर भी उसके जीवन में अन्याय, अभक्ष्य एवं मिथ्यात्वपोषक क्रियाएँ नहीं रहती हैं । उसका जीवन शुद्ध सात्विक हो जाता है, उससे हीन काम नहीं होते। वह युवक सवारी लेकर स्टेशन तो नहीं जावेगा, पर उस सेठ के घर रिक्शा वापिस देने और किराया देने तो जावेगा ही, जिसका रिक्शा वह किराये पर लाया था। प्रतिदिन शाम को रिक्शा और किराये के दस रुपये दे आने पर ही उसे अगले दिन रिक्शा किराये पर मिलता था। यदि कभी रिक्शा और किराया देने न जा पावे तो सेठ घर पर आ धमकता था, मुहल्लेवालों के सामने उसकी इज्जत उतार देता था। आज वह सेठ के घर रिक्शा देने भी न जावेगा । उसे वहीं ऐसा ही छोड़कर चल देगा। तब फिर क्या वह सेठ उसके घर जायेगा ? हाँ जायगा, अवश्य जायगा, पर रिक्शा लेने नहीं, रुपये लेने नहीं, अपनी लड़की का रिश्ता लेकर जायेगा, क्योंकि यह पता चल जाने पर कि इसके करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं, कौन अपनी कन्या देकर कृतार्थ न होना चाहेगा। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को आत्मानुभव होता है तो उसके अन्तर् की हीन भावना समाप्त हो ही जाती है, पर सातिशय पुण्य का बन्ध होने से लोक में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, लोक भी उसके सद्व्यवहार से प्रभावित होता है । ऐसा सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। - ज्ञात हो जाने पर भी जिस प्रकार कोई असभ्य व्यक्ति उस रिक्शेवाले से रिक्शेवालों जैसा व्यवहार भी कदाचित् कर सकता है, उसी प्रकार कुछ अज्ञानीजन उन ज्ञानी धर्मात्माओं से भी कदाचित असद्व्यवहार कर सकते हैं, करते भी देखे जाते हैं, पर यह बहुत कम होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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