Book Title: Anusandhan 2010 06 SrNo 51
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 7
________________ जून २०१० द्वारा रचायेल आधुनिक / अर्वाचीन लेख होवानुं प्रतीत थयुं होय अने तेथी तेने हिमवदाचार्य जेवा क्षमाश्रमण साधुपुरुषनी रचना समजीने करेलां विधानोमां पीछेहठ के परिवर्तन तेओ करे, तो तेने "गुंचवाडो ऊभो करे छे" एवं कहेवामां कहेनारनी अज्ञता अने संशोधन तथा संशोधक परत्वेनी गेरसमज ज प्रगट थती जणाय छे. ३ एक-बे उदाहरणो द्वारा आ बाबतने स्पष्ट समजीए. 'योगदृष्टिसमुच्चय' ए हरिभद्राचार्यनो रचित ग्रन्थ छे. तेना ८२मा क्रमाङ्कनो श्लोक परम्पराप्राप्त वाचनानुसार आ प्रमाणे छे : 'आत्मानं पाशयन्त्येते, सदाऽसच्चेष्टया भृशम् । पापधूल्या जडाः कार्य-मविचार्यैव तत्त्वतः ॥८२॥" आनो शब्दार्थ – “पोतानी असत् चेष्टा थकी, आवा लोको, पोताना आत्माने, पापरूपी धूळ वडे पाशयन्ति - बांधे छे" आवो करवामां आवेछे. टीकामां ‘पाशयन्ति’नी टीका 'गुण्डयन्ति' (खरडे छे) एम तद्दन स्पष्ट होवा छतां ‘पाशयन्ति’ अने तेना बांधवारूप अर्थ अंगे कोईने कदीये शङ्का के सवाल थयां/ थतां नथी. हवे प्राचीन प्रतिओमां आ स्थाने "पान्सयन्ति" एवो पाठ छे. 'पान्सयन्ति' एटले 'धूलिधूसर करे छे' एम अर्थ थाय; अर्थात् 'मेलो करे छे - खरडे छे.' हवे संशोधक जो आ पाठने वास्तविक अने योग्य समजीने 'पाशयन्ति' ने दूर करी ‘पान्सयन्ति' करी आपे, तो शुं तेणे गुंचवाडो ऊभो कर्यो गणाशे ? केमके हजारो लोको तो ‘पाशयन्ति' ज भण्या छे, अने तेमणे छपावेल पुस्तकोमां पण ते ज पाठ छे. तो शुं शुद्ध पाठ स्वीकारवामां अहीं परम्परानो ध्वंस थयो गणाशे ? जड जनो मुद्रित पाठने वफादारीपूर्वक वळगी रहे अने शुद्ध पाठने- संशोधनने गुंचवाडा तरीके नवाजे, तो शुं संशोधकोए पोतानो धर्म पडतो मूकवो ? अलबत्त, नहीं. ‘आसनसे मत डोल' ए ज साचा संशोधकनुं कर्तव्य होय छे. ज्यां सुधी पोताना संशोधनने, बधु सबळ प्रमाणो द्वारा, कोई खोटुं के अन्यथा न ठरावे, त्यां सुधी पोताना कर्तव्यथी डोले - डगे नहि, ते संशोधक. बीजो दाखलो पण जोईए. डभोईमां उपाध्याय यशोविजयजीनी, स्वर्गवासनी तथा अन्तिम संस्कारनी भूमि प्रसिद्ध छे. सैकाओथी ते जग्या परम्परा द्वारा,

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