Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ सम्पादकीय आज प्राच्य विद्याओं के अनुशीलन में जैन विद्या का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाने लगा है। पूरे देश में संतों और विद्वानों ने पिछले कुछ दशकों में साधनों के अभाव में रहकर भी जो आन्दोलन चलाये, उनसे जैन विद्या-अनुसंधान के क्षेत्र में कुछ आशा की किरणें भी फूटी हैं, किन्तु कहना गलत न होगा कि सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय की ओर हम दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि अन्य प्राच्य विद्याओं के अनुशीलन-अनुसंधान की मात्रा की तुलना में आज भी हम नगण्य ही हैं। व्यापक सोच, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणात्मक कार्य और दूरगामी परिणामों को प्राप्त कराने वाली योजनाओं के लिए धैर्य - इन सभी विषयों में आज भी हम पीछे ही हैं। इसके पीछे भी अनेक कारण रहे हैं, और उनमें से प्रमुख कारण रहा है : भारत सरकार द्वारा जैन विद्या और प्राकृत भाषा के शोध-अनुसंधान की उपेक्षा, जो आरंभ से ही आज तक चली आ रही है। उदाहरण के लिए आज देश की राजधानी दिल्ली जैसे महानगर में भी भारत की लगभग सभी भाषाओं की अकादमी हैं, जैसे हिन्दी अकादमी, उर्दू अकादमी, संस्कृत अकादमी, पंजावी अकादमी इत्यादि; किन्तु अभी तक देश की प्राचीनतम भाषा 'प्राकृत' के लिए प्राकृत अकादमी नहीं है। सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार आवश्यकता है कि अर्वाचीन इतिहास की समन्वय-प्रधान चक्षुप्मत्ता से विशाल जैन सहित्य का अनुशीलन किया जाये। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का ही आवश्यक अंग उन ग्रन्थों का समुचित सम्पादन और प्रकाशन है, क्योंकि इस विषय में जो सौभाग्य वौद्ध और ब्राह्मण साहित्य को प्राप्त हुआ, जैन साहित्य अधिकांश रूप में उससे वंचित ही रहा। अतएव वर्तमान युग की आवश्यकता है कि इस विशाल साहित्य का शीघ्र प्रकाशन किया जाये। यह कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण और अनेक विद्वानों और दाताओं की सहायता की अपेक्षा रखता है। अतएव कितने ही स्थानों से और कई योजनाओं के अन्तर्गत इसे पूरा करना होगा। कार्य इतना विशाल है कि इसमें सबके सहयोग की अपेक्षा है। साम्प्रदायिक संकीर्णता अथवा पारस्परिक स्पर्धा के लिए किसी प्रकार का अवसर न होना चाहिए।Page Navigation
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