Book Title: Anekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 7
________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 जैन शोध में गुणवत्ता और व्यापकता की कमी का एक मुख्य कारण अन्य परम्पराओं के ग्रंथों का अध्ययन करने की मचि का न होना भी है। जो दर्शन जानते हैं वे भाषा नहीं जानते, जो भापा जानते हैं वे दर्शन नहीं जानते। अन्य भारतीय परम्पराओं के अध्ययन के अभाव में अनुसंधान का दायरा भी बहुत सीमित हो जाता है, जिसमें वह व्यापकता को प्राप्त नहीं कर पाता है। हमारी धर्म परम्पगओं की पुरानी दृष्टि बदलनी हो तो हमें नीचे लिखे अनुसार काम करना होगा। ___ 1. प्रत्येक धर्म परम्परा को दूसरी धर्म परम्परा का उतना ही आदर करना चाहिए, जितना वह अपने बारे में चाहती है। 2. इसके लिए गुरुवर्ग आर पण्डितवर्ग सवको आपस में मिलने-जुलने का प्रसंग पैदा करना और उदार दृष्टि से विचार-विनिमय करना। जहाँ ऐकमन्य न हो, वहां विवाद में न पड़कर सहिष्णता की वृद्धि करना। धार्मिक और सांस्कृतिक अध्ययन-अध्यापन की परम्पराओं को इतना विकसित करना कि जिसमें किसी एक धर्म परम्पग का अनुयायी अन्य धर्म परम्पराओं की वानों से सर्वथा अनभिज्ञ न रहे और उनके मन्नव्यों को गलत रूप में न समझे। __शोध के क्षेत्र में सबसे अधिक घातक होता है, दुराग्रह। लगातार कई वर्षो में शोध-स्तर को सुधारने के प्रयासों के बावजूद, आज कुछ ही लोग मिलते हैं जो इससे अलग रह पाते हैं। एक तरफ सरकारी उपेक्षा, समाज-स्तर पर शोध के क्षेत्र में रुचि न होने के कारण पर्याप्त सहयोग और अन्य साधनों का अभाव है; दूसरी तरफ सीमित विद्वान्, सीमित शक्ति और संसाधन भी सीमित हैं। इसलिए आज इसके लिए एक विशाल टीमवर्क की आवश्यकता है जो कार्य को मुख्यता दे। जव तक पद, नाम, मान, पेसा, राजनीति और सबसे बड़ी वात - दुराग्रह दूर नहीं होगा, तब तक मंजिल प्राप्त नहीं की जा सकती है। यह कार्य शांत, दीर्घकालिक आर दूरगामी परिणाम देने वाला है। गणना में कम तथा संसाधन सीमित होने के वाद उनमें भी खींचातानी आत्मघाती ही है। हमारी आपसी समस्याओं का असर शोध कार्यों पर पड़ता है। हमारी शक्ति और समय का अपव्यय व्यर्थ की उन उलझनों में होता रहता है, जिन्हें हम स्वयं ही उत्पन्न करते हैं। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि जर्मनी के विद्वानों ने जैनागमों पर शोधकार्य किया और हमें ही हमारी सम्पदा का महत्त्व समझाया।Page Navigation
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