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शृंगेरिकी पार्श्वनाथ - वस्तीका शिलालेख
(बा० कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर')
["लॉजिकल सर्वे ऑफ मैसूर" सन् १६३३ में गेरि नामक स्थानके शिलालेख दिये हुये हैं । उनमें से एक शिलालेखको हम सधन्यवाद यहाँ उपस्थित करते हैं । - लेखक ]
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१. श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलां
शान्तिसेट्टिके पुत्र बासिसेट्टिकी बड़ी बहन थी । २. च्छनं जीयात् त्रैलोक्य - नाथस्य शासनं बणजमु और नानादेशी व्यापारियोंने भी बसदिके
जिनशासनं ।
लिए कतिपय वस्तुओं पर कर देना स्वीकार किया । अन्तमें जो इस दानको नष्ट करेगा उसे गङ्गापर एक सहस्र गौवध करनेका पातक लगेगा, यह उल्लेख है । इस लेख से स्पष्ट है कि पहले शृंगेरिमें जैनोंकी संख्या और मान्यता अधिक थी । (The inscription shows that Jainism had once a good following in Sringeri in former times.—Arch. Sur. of Mysore, 1933, p. 124)
३. स्वस्ति श्रीमत शकवर्षम् द १०८२
४. विक्रम संवत्सरद कुम्भ शु५. द्ध दशमि बृहवारदन्दु श्रीमान् — निडुगोड ६. विजयनारायण शान्तिसेट्टिय पुत्र बा - ७. सि-सेट्टियर अक्क सिरियबे - सट्टितियर म८. लु नागवे सेट्टितियर मगलु सिरिय९. ले- सेट्टितिगं हेम्माडि सेट्टिगं सुपुत्रन१०. प मारिसेट्टिगे पराक्षविनयक्के मा११. डिसिद बसदिगे बिट्ट दत्ति केरेय केलग१२. गहिरिय गदेय वसदिय बडगण होस १३. युं भंडियुं होलेयुं नडुवा हुदुविन होरद १४. मणु कण्डुग सुल्लिगोड अरुगण्डुग मरगु "बजमुं नानदेखि बिट्टय मलवेगे हाग हन्ज बोट्टिय मल ले मेलसिन मार के हागमुं १८. मत्तं पोत्तोब्बलुप्पु हेरिग् श्रय्वत्तेले रिसिनद मलवेगे विसक्के बिट्टं तपिदडे तप्पिदवनु गंगेय१९. लु सैर कविलेय कोन्द पातक
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इसके अंग्रेजी अनुवादका भावार्थ निम्न प्रकार है: - "जिनशासन जयवंता प्रवर्तो जो त्रिलोकीनाथका शासन है और श्रीमत् परमगंभीर स्याद्वाद - लक्षण से युक्त है । स्वस्ति । शक संवत् १०८२ विक्रम वर्षके कुंभके शुक्लपक्ष की दशमी के वृहस्पतिवार को बसदि (जिनमन्दिर) के लिए दान दिया गया, जिसे हैम्माडि सेट्टिके पुत्र मारिसेट्टिकी एवं नागवेसेट्टितियरकी पुत्री सिरियबेसेट्टितिकी स्मृतिमें निर्माण किया गया था । सिरियबेसेट्टिति निडुगोडु - निवासी विजयनारायण
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आजकल शृंगेरि ब्राह्मरण - सम्प्रदायका मुख्य केन्द्र और तीर्थ बना हुआ है । शङ्कराचार्यके समय से ही शृंगेर में ब्राह्मणधर्मकी जड़ जम गई थी और उपरान्तकालमें ब्राह्मण सम्प्रदाय में शृंगेरिमठके श्रीशङ्कराचार्य प्रसिद्ध होते आये हैं। आज वहाँ जैनायतन हतप्रभ होरहे हैं। जैनोंको उनका जरा भी ध्यान नहीं है । इस प्रकारकी अनेक कीर्ति - कृतियाँ भारत में बिखरी पड़ी हैं, पर हमारे जैनी भाई उनकी श्रोरसे बेसुध हैं ।
इस शिलालेख में व्यापारियोंके दो भेदों (१) बणजमु ( २ ) और नानादेशीका उल्लेख उनकी बणिज वृत्तिको ही सम्भवतः लक्ष्य में लेकर किया गया है । अनुमानतः जो लोग दूर दूर देशों में न जाकर स्थानीय देहातमें व्यापार करते होंगे वे बणजम् कहलाते होंगे । और दूर दूर देशोंमें जाकर से आकर ?) व्यापार करनेवाले नानादेशी कहलाते होंगे । दक्षिणके विद्वानोंको इसपर प्रकाश डालना चाहिये । इससे इतना स्पष्ट है कि इन व्यापारियों में जातिगत भेदभाव तबतक नहीं था ।
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