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अंशोंमें अनुचित नहीं । पश्चिम भारतके प्रायः तमाम मन्दिरोंके शिखर एक ही पद्धतिके हैं। अन्य प्रान्तोंमें वहाँके प्रान्तीय तत्वोंका प्रभाव है। गर्भगृह, नवचौकी, सभामण्डप आदि में अन्तर नहीं, परन्तु मन्दिर में गर्भगृहके अग्रभाग में सुन्दर तोरण, स्तम्भ एवं तदुपरि विविधवाद्यादि सङ्गीतोपकरण धारक पुतलियाँ, उनका शारीरिक गठन, अभिनय, आभूषण तथा शिखरके ऊपरके भाग में जो अलङ्करण हैं उनमें प्रान्तीय कलाका प्रभाव पाया जाना सर्वथा स्वाभविक है | जैनमन्दिरोंके निर्माणका सब अधिकार सोमपुराओं को था, वे आज भी प्राचीन पद्धतिके प्रतीक हैं, जिनमें भाई शङ्कर भाई और प्रभाशङ्कर भाई, नर्मदाशङ्कर आदि प्रमुख हैं। पं० भगवानदास जैन भी शिल्पविद्याके दक्ष पुरुषोंमें हैं। आबू, जैसलमेर, राणकपुर, पालिताना, खजुराहा. देवगढ़ और श्रवणबेलगोला, जैनकाची, पाटन आदि अनेक नगरोंके मन्दिर स्थापत्यकला के मुखको उज्ज्वल करते हैं ।
बूके तोरण-स्तम्भ और मधुच्छत्र भारतमें विख्यात हैं । मध्यकालीन जैन शिल्पकलाके विकास के जो उदाहरण मिले हैं उनमें अधिकांश जैनमन्दिर ही हैं। इनके क्रमिक इतिहासपर प्रकाश डालने वाला एक
अनेकान्त
प्रकाशित हुआ, जिससे अजैनकलाप्रेमी भी जैनकलासे लाभान्वित होसकें । यह इतिहास तैयार होगा तब बहुतसे ऐसे तत्त्व प्रकाशमें आवेंगे जो आज तक वास्तुकला के इतिहासमें आये ही नहीं । न जाने उस स्वर्ण दिनका कब उदय होगा ?
कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी ओरसे हाल हीमें "हिन्दु टेम्पल" नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित हुआ है जिसे एक हंगेरियन स्त्री डॉ० स्टेलाक्रेमशीशने वर्षोंके परिश्रमसे तैयार किया. है । इसमें भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमें पाये जाने वाले प्रधानतः हिन्दूमान्य मन्दिर, उनका वास्तुशास्त्र की दृष्टि से विवेचन, मन्दिरों में पाई जाने वाली अनेक 'शिल्पकृतियोंके जो चित्र प्रकाशित किये हैं वे ही उन की महत्ता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मैंने अपनी परिचिता डॉ० स्टेलाक्रेमशीशसे यों ही बातचीत के सिलसिले में
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कहा कि आपका कार्य त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इनमें जैन. मन्दिरोंकी पूर्णतः उपेक्षा की गई है जो कलाकौशलमें किसी दृष्टिसे प्रकाशित चित्रोंसे कम नहीं पर बढ़कर हैं। वह कहने लगी मैं करूँ क्या मुझे जो सामग्री मिली है उसके पीछे कितना श्रम करना पड़ा है आप जानते हैं ।
मैं तो बहुत ही लज्जित हुआ कि आज के युग में भी हमारा समाज संशोधकको न जाने क्यों घृणित दृष्टि से देखता है। मेरे लिखनेका तात्पर्य इतना ही है कि हमारी सुस्ती हमें ही बुरी तरह खाये जारही है, . इससे तो दुःख होता है। न जाने आगामी सांकृतिक निर्माण में जैनोंका जैसा योगदान रहेगा, वे तो अपने ही इतिहास के साधनों पर उपेक्षित मनोवृत्ति रक्खे हुए हैं । जैन मन्दिरोंमें से जो भरतीय शिल्प और वास्तुकला की दृष्टिसे अनुपम मन्दिर हैं उनका एक आल्बम तैयार होना चाहिए जिसमें मन्दिर और उनकी कला के क्रमिक विकास पर आलोक डालने वाला विस्तृत प्रास्ताविक भी हो ।
२ गुफाएं -
जिस प्रकार मन्दिरोंकी संख्या पाई जाती है उतनी गुफाओंकी संख्या नहीं है गुफाओंको यदि कुछ अंशोंमें मन्दिरोंका अविकसितरूप मानें तो अनुचित नहीं, यह रामटेक, चाँदवड, एलोरा, ढक्क आदि पर्वतोत्कीर्ण गुफाओंसे प्रमाणित होता है। इनका इतिहास तो पूर्णान्धकाराच्छन्न है, जो कुछ गजेटियर्स और आँग्ल पुरातत्त्ववेत्ताओंने लिखा है उसीपर आधार रखना पड़ता है। इनमें एक भूल यह होगई है कि बहुसंख्यक जैन गुफाएँ बौद्धस्थापत्यावशेषों के रूपमें आज भी मानी जाती हैं। उदाहरण के लिये राजगृहस्थित रोहिणेयकी ही गुफा लीजिये, जो पाँचवें पहाड़पर अवस्थित है। जनता इसे "सप्तपर्णी गुफा" के रूप में पहचानती है आश्चर्य तो इस बात का है कि पुरातत्व विभागकी ओरसे बोड भी वैसा ही लगा है। और भी ऐसे अनेक जैन सांस्कृतिक प्रतीक मैंने देखे हैं जो इतर सम्प्रदायोंके नाम
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