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विशाल स्तम्भ करनेकी प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में ही रही है। चित्तौड़का कीर्तिस्तम्भ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैनधर्मकी दृष्टिसे इन स्तम्भोंका बड़ा महत्व भले ही हो । परन्तु शिल्पकलाके इतिहासपरसे मानना होगा कि यह जैन वास्तुकी दैन है जिसको जैनोंने अपना स्वरूप देकर अपना लिया, ये स्तम्भ भी दक्षिण भारतमें बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। इनमें जो कलाकौशल पाया जाता है उसके महत्व से जैनसमाज तक अनभिज्ञ है । सांचीके उपरिभागमें जिन प्रतिमाएँ रहती थीं, कहा जाता है कि ये शूद्रोंके दर्शनार्थ रखी जाती थीं । आज भी प्रत्येक दिगम्बर जैनमन्दिरके आगे एक स्तम्भ यदि खड़ा हो तो समझना चाहिये कि यहाँ मानस्तम्भ है । इनपर भी एक ग्रन्थ आसानीसे प्रस्तुत किया जासके इतनी सामग्री विद्यमान है । ५ लेख
अनेकान्त
जैन पुरात की आत्मा है किसी भी राष्ट्रकी राजनैतिक स्थितिके वास्तविक ज्ञान वृद्धयर्थ उसके शिलालेखों का परिशीलन आवश्यक है ठीक उसी प्रकार जैन संस्कृतिके तत्त्वोंका अनुशीलन अनिवार्य है । इसमें धार्मिक और सामाजिक इतिहासकी विशाल सामग्री भरी पड़ी है। राजनैतिक दृष्टि से भी ये उपेक्षणीय नहीं । तत्कालीन मानव जीवनके सम्बन्धमें जो बहुमूल्य तत्वोंका समीकरण हुआ था उनका आभास भी इन प्रस्तरोत्कीर्ण शिलाखण्डोंसे मिलता है । पश्चिम भारतके लेख ब्राह्मी या अधिकांशतः देवनागरीमें मिले हैं जब दक्षिणभारतमें कनाडी में । जैन लेखोंको यों तो कई भागों में बाँटा जा सकता है पर मैं यहाँ केवलदो भागों में विभाजित करूँगा । (१) शिला पर उत्कीर्ण लेख (२) प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेख
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प्रथम श्रेणी के लेख बहुत ही कम मिलते हैं । खारवेलका लेख अत्यन्त मूल्यवान् है जो ईस्वी पूर्व दूसरी शतीका है । उदयगिरि खण्ड गिरिमें और भी जो प्राकृत शिलालेख पाये जाते हैं उन सभीपर विस्तृत विवरण के साथ पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजय
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जीने श्रमपूर्वक प्रकाशित करवाये हैं । मथुराके लेख जैन- इतिहासमें बहुत बड़ा महत्व रखते हैं । डा० याकोबीने इनकी भाषा के आधारपर ही जैन आगमोंकी भाषा की तीक्ष्ण जाँचकर प्राचीन स्वीकार किया है । विन्सेण्टस्मिथने मथुरा के पुरातत्त्वपर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही प्रकट किया है । डा० अग्रवाल आदि महानुभाव समय-समयपर यहाँकी जैन पुरातत्त्व विषयक सामग्रीपर प्रकाश डालते रहे हैं ।
कलकत्ता निवासी स्व० बाबू पूर्णचन्दजी नाहरने मथुराके तमाम शिलालेखोंकी जाँच दुबारा स्वयं जाकर की थी, डा० स्मिथने जो भूलें की थीं उनका संशोधन करके अनन्तर उन समस्त जैन लेखों का मूल पाठ शुद्धकर, हिन्दी और अँग्रेजी भाषाओं में उनका अनुवाद कर एक विशाल संग्रह तैयार कर रखा था, पर अकालमें ही उनकी मृत्युने इस महान् कामको रोक दिया, वरना न जाने क्या क्या साधन प्रस्तुत करते । जैन साहित्य में जहाँ जहाँ मथुराका उल्लेख भी आया है उन कई उल्लेखोंको नोट करके वहाँकी जैन संस्कृति विषयक प्रचण्ड सामग्री भी सचित कर रखी थी । उनके सुयोग्य पुत्र राष्ट्रकर्म्म श्रीविजयसिंह जी नाहर सहर्ष प्रकट करने को भी तैयार हैं। मैं अपने सहयोगियोंकी खोज में हूँ । यदि समय और शक्ति ने साथ दिया तो काम किञ्चित् तो हो ही जायेगा ।
गुप्तकालीन भारतका उत्कर्ष चरम सीमापर था, इस कालके संवत् वाले जैनलेख अल्प मिले हैं। राजगृहीमें सोन भण्डार में जो लेख लिखा है वह जैनधर्मसे सम्बन्धित होना चाहिये; क्योंकि वह स्मारक ही शुद्ध जैन-संस्कृति से सम्बद्ध है । जैन प्रतिमाएँ स्पष्टरूपसे उत्कीर्णित हैं । भारत सरकार के प्रधान लिपि वाचक श्रीयुत डा० बहादुरचन्द छावड़ाने इसका इम्प्रेशन गत मासमें मँगवाया है इससे अंदाज हैं कि वे इसपर प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे | आचार्य मुनि वैरदेव के नामका एक लघु लेख श्रीयुत भँवर - लालजी जैनने मुझे कलकत्तामें बताया था, लिपि अन्तिम गुप्तकालीन थी । नालन्दाकों तलहटी में एक गुफा बनवानेका उल्लेख था । (गली किरण में समाप्त)
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