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अनेकान्त
[ वर्ष ९ .
मंजुलाल भाई मजूमदार-द्वारा प्रेषित दुर्गासप्तशतीके कलापर विस्तृत विवेचनात्मक प्रकाश डालनेवाला मध्यका लीन चित्र बतलाये, उन्होंने देखते ही इनकी विवरण एवं महत्वपूर्ण भागोंके चित्र देकर एक ग्रन्थ कला और परम्परापर छोटासा व्याख्यान दे डाला प्रकाशित किया जाना चाहिए । यह इतिहास हमारी जो आज भी मेरे मस्तिष्कमें गुञ्जायमान होरहा है। संस्कृतिके महत्वपूर्ण अङ्ग जो देवस्थान, मुनिस्थान हैं उसका सार यही था कि इन कलात्मक चित्रोंपर उनके विकासपर बहुत बड़ा प्रकाश डालेगा। भारतीय एलोराकी चित्र और शिल्पकलाका बहुत प्रभाव है। पुरातत्त्व-विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल श्रीमान् जैन-शैलीके विकासात्मक तत्त्वोंका मूल बहुत अंशोंमें हरगोविन्दलाल श्रीवास्तव जैन-गुफाओंपर काम एलोरा ही रहा है । चेहरे और चक्षु तो सर्वथा उनकी करनेवाले जैन विद्वानोंकी खोजमें हैं वे हर तरहसे देन है । रङ्ग और रेखाओंपर आपने कहा कि जिन- सहायता प्रदान करनेको कटिबद्ध भी हैं, जैनोंको जिन रङ्गोंका व्यवहार एलोराके चित्रोंमें हुआ है वे ऐसा सुअवसर हाथसे न जाने देना चाहिए.। अस्तु । ही रङ्ग और रेखाएँ आगे चलकर जैन-चित्रकलामें ३ प्रतिमाएं-निम्न उपविभागोंमें विभाजितकी ' विकसित हई। यह तो एक उदाहरण है इसीसे
जा सकती है:समझा जा सकता है कि जैन-चित्रकलाकी दृष्टिसे भी
(अ) तीर्थंकरोंकी प्रस्तर प्रतिमाएँ इन स्थापत्यावशेषोंका कितना बड़ा महत्व है जिनको
(आ) तीर्थंकरोंकी धातु प्रतिमाएँ हम भूलते चले जारहे हैं।
(इ) तीर्थकरोंकी काष्ठ प्रतिमाएँ ___ज्यों-ज्यों सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ
__ (ई) यक्ष-यक्षिणीकी प्रतिमाएँ खड़ी होती गई या स्पष्ट कहा जाय तो विकसित होती
(उ) फुटकर गई त्यों-त्यों पर्वतोंमें गुफाओंका निर्माण कम होता
(अ) प्रथम भागको हम अपनी अधिक सुविधा गया और आध्यात्मिक शान्तिप्रद स्थानोंकी सृष्टि के लिये दो उपभागोंमें बाँटेंगे। जनावास-नगरों-में होने लगी। इतिहास इसका
१ मथुराकी प्रतिमाओंसे लगाकर १०वीं शती तक साक्षी है। मेरा तो वैयक्तिक मानना है कि इससे की समस्त पाषाण प्रतिमाएँ एवं अयाग पट्ट मिले हैं हमारी क्षति ही हुई, स्थानोंकी अभवृद्धि अवश्य ही उनका महत्व सर्वोपरि है। प्राप्त जैन प्रतिमाओंमें हाई परन्तु वह आत्मविहीन शरीरमात्र रह गई। यहाँके कंकाली टीलेमे प्राप्त प्रतिमाएँ एवं अन्य जैनाप्रक्रतिसे जो सम्बन्ध स्थापित था वह रुक गया, जो वशेष सर्व प्राचीन हैं। मर्तिका आकार-प्रकार भी आनन्द कुटियामें-जहाँ आवश्यकताओंकी कमी पर अच्छा ही है। गुप्तोंके समयमें मूर्ति निर्माणकलाकी ही ध्यान दिया जाता था-है वह महलोंमें कहाँ ? धारा तीव्रगतिसे प्रवाहित होरही थी। बौदोंने इससे स्व० महात्माजीका निवास इसका प्रतीक है । शान्ति- खूब लाभ उठाया, क्योंकि उस समयका वायुमण्डल निकेतनमें मैंने महात्माजीका निवास स्थान देखा, दूर अनुरूप था। नालंदाको अभी ही गत मास मुझे से विदित होता है मानो कोई गुफा बनी हुई है, देखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, यहाँपर जो जैन भातरी व्यवस्था भी पूर्व स्मृतिका स्मरण करा देती है। प्रतिमाएँ अवस्थित हैं वे मथुराके बाद बनने वाली
उपर्युक्त पंक्ति कथित (?) साधन हमारी संस्कृति प्रतिमाओंमें उच्च हैं, गुप्तकालीन कलाका प्रभाव उनपर के वास्तविक रूपको प्रकट करते हैं। भारतीय स्था• बहुत अधिक पड़ा है। इनके सम्मुख घण्टों बैठे रहिए पत्यकलाका चरम विकास उन्हींमें अन्तर्निहित है। मन बड़ा प्रसन्न होकर आध्यात्मिक शक्तिका अनुभव परन्तु जैनोंने अपनी इस निधिको आजतक उपेक्षित करने लगता है। शुभ परिणामोंकी धारा बहने वृत्तिसे देखा। मैं तो चाहता हूँ अब समय आगया है लगती है। अनेकों सात्विक विचार और परम वीतइन गुफाओंका विस्तृत अध्ययन कर उनकी शिल्प- राग परमात्माके जीवन के रहस्यमय तत्त्व मस्तिष्कमें
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