Book Title: Anekant 1948 06
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 18
________________ २२८ अनेकान्त [ वर्ष ९ पद्धतिसे देखते हैं । वे नहीं चाहते हैं कि हमारी सभ्यतासे सम्बन्धित कोई भी साधन हमारी दृष्टिसे वश्चित रहे । कैसी खोजकी लगन ? जब हम तो बड़े आनन्दसे बैठे हैं, विशाल सम्पत्तिका स्वामी जैन समाज भी आज अकिश्चिन बनकर जीवन यापन करे यह उचित नहीं । जैनोंका तो प्रथम कर्तव्य है कि वे अपने कलात्मक खण्डों को एकत्र करें या उनपर अध्ययन करें। मैं मानता हूँ आज जैन समाज के सामने बहुत-सी ऐसी समस्याएँ हैं जिनको सुलझाना, समयकी गति और शक्तिको देखना अनि वार्य है, परन्तु जो प्राचीन संस्कृतिके रङ्गमें रङ्गे हुए हैं उनको तो पुरातन अवशेषोंकी रक्षाका प्रश्न ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण और शीघ्रातिशीघ्र ध्यान देने योग्य है । यह युग सांस्कृतिक उत्थानका है । स्वतन्त्र भारतका पुनर्निर्माण होने जारहा है। ऐसे अवसरपर चुप बैठना - जबकि आजका वायुमण्डल सर्वथा हमारे अनुकूल है -भारी अकर्मयता और पतनकी निशानी है । यों तो भारत सरकारने पुरातत्त्वकी खोजका एक स्वतन्त्र विभाग ही खोल रखा था, जिसके प्रथम अध्यक्ष जनरल कनिंघम ई० सन् १८६२ में नियुक्त किये गये थे । इन्होंने और बादमें इसी पदपर आने वाले महानुभावोंने अपने गवेषणा – खुदाई के समय जो जो जैन अवा शेष उपलब्ध हुए और जिस रूपमें वे प्राप्त साधनों के आधारपर उनका अध्ययन कर सके, उसी रूपमें यथासाध्य समझने का प्रयास किया। इस विभाग की रिपोर्ट में जैन पुरातन अवशेषोंके चित्र और विवरण भरे पड़े हैं । कहीं विकृतियुक्त भी वर्णन है । डा० जैन्स बर्जेस, कर्नल टॉड, डा० बूलर, डा० भांडारकर (पिता-पुत्र) डा० गेरिनॉड, डा० गौ० हीरा० ओझा, 'मि० नरसिंहाचारियर, मुनि जिनविजयजी, और स्व० बाबू पूर्णचन्दजी नाहर आदि अनेकों पुरातत्त्व के पण्डितोंने जैन पुरातन अवशेषोंकी जो गवेषणकर आदर्श उपस्थित किया है वह आज भी अनु करणीय है । पूर्व गवेषित साधनोंके आधारपर से स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने "प्राचीन जैन मध्यप्रान्त और बरार छह वर्ष तक मेरे विहार का क्षेत्र रहा है, यहाँके पुरातत्त्वपर मैंने विशाल भारत १९४७ जुलाई, अगस्त, सितम्बर, नवम्बर, दिसम्बर आदि में कुछ लेख लिखे हैं । इनके अतिरिक्त लखनादौन, धुनसौर, कांकेर, बस्तर, पद्मपुर, आरङ्ग, पौनार, भद्रावती आदि प्रचीन स्थानोंमें यदि खुदाई करवाई जाय तो बहुत बड़ी निधि निकलनेकी पूर्ण सम्भावना है । इन सभी स्थानोंपर जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । यवतमालकी जैन रिसर्च सोसाइटीके कार्यकर्ताओं का ध्यान मैं इन क्षेत्रोंपर आकृष्ट करता हूं। वे कमसे कम मध्यप्रान्त और बरारके जैन पुरातत्त्वपर अन्वेषणात्मक ग्रन्थ प्रस्तुत करें । भारतीय जैन तीर्थ और मन्दिर आदिका केवल वास्तुकला की दृष्टिसे यदि अध्ययन किया जाय तो विदित हुए बिना न रहेगा कि तक्षणकलाके प्रवाहको जैनोंने कितना वेग दिया, पुरातन जैनोंका नैतिक जीवन कलाके उच्चातिउच्च सैद्धान्तिक रहस्योंसे श्रोतप्रोत था, आज कलाकी उपासना स्वतन्त्ररूपसे करना तो रहा दूर परन्तु जो अवशेष निर्मित हैं उनको सँभालना तक असम्भव होरहा है। एक लेखकने ठीक ही लिखा है कि "इतिहास बनाने वाले व्यक्ति तो गये परन्तु उनकी कीर्ति-गाथाको एकत्रित करने वाले भी उत्पन्न नही होरहे हैं" जैन समाजपर उपर्युक्त पंक्ति सोलहों खाना चरितार्थ होती है । Jain Education International आजके गवेषणा- युगमें इनकी उपेक्षा करना अपनी जानबूझकर अवनति करना है। इनके प्रति अन्यथा भाव रखना ही हमारे पूर्वजोंका भयङ्कर अपमान है— उनकी कीर्तिलताकी अवहेलना है । सांस्कृतिक पतनसे बढ़कर संसार में कोई पतन नहीं है । सुन्दर अतीत ही अनागतकालकी सुन्दर सृष्टि कर सकता है। गड़े मुर्दे उखाड़ना ही पड़ेगा, वे ही हामी युग निर्माण में मददगार होंगे। उनके मौनानुभव से हमको जो उत्साह-प्रद प्रेरणाएँ मिलती हैं वे अन्यत्र कहाँ मिलेंगी ? आज सारा विश्व अपनी अपनी सभ्यता के गहनतम अध्ययनमें व्यस्त हैं । वहाँके विद्वान् एक-एक प्रस्तर खण्डको विशिष्ट For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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