Book Title: Ananthnath Jina Chariyam Author(s): Nemichandrasuri, Jitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya Publisher: L D Indology Ahmedabad View full book textPage 9
________________ देने का प्रयत्न किया है। इसके अतिरिक्त व-ब, च--व, त्थ-च्छ, प-ए, एप, द्द-दृ, दृ-द्द, ट्ठ-द्ध, द्ध-ट्ठ, उ-ओ, ओ-उ, य-इ, इ-य, ई-इ, इन अक्षरों के बीच के भेद को न समझने कारण लिपिक ने एक अक्षर के स्थान पर दूसरा अक्षर लिख दिया है । क्ख, ण्ण, म्म, च्छ, त्थ, जैसे संयुक्त, अक्षरों के स्थान पर ख, ण, म, ठ, छ, थ भी कई स्थान पर लिखे हुए मिलते हैं । निरर्थक अनुस्वार भी कई जगह लिखे हुए मिलते हैं और कई जगह लिपिकार अनुस्वार ही लिखना भूल गया है । कहीं कहीं लिपिकार ने एक ही अक्षर या शब्द दुबारा भी लिखन दिया है और कहीं कहीं एक जैसे अक्षर दो बार आते हैं तो लिपिकार उन्हें लिखना ही भूल गया है । पृष्ठपडिमात्रा को समझने में भी लिपिक ने भूलें की हैं । एक ही प्रति के होने के कारण इन्हें सुधारने में बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । अपनी बुद्धि और विवेक से जो पाठ या अक्षर उचित लगे, उन्हें यथास्थान सुधार कर रखा गया है । जो पाठ समझ में नहीं आया उसे प्रति के पाठ के अनुसार यथावत् ही रखा है । कथा वस्तु : चरित्र के आरंभ में कवि आदि मंगल में दान, शील, तप और भावना रूप चार प्रकार के धर्म का समवसरण में चार रूप धारण कर प्रतिपादन करने वाले ऐसे युगादि जिनेन्द्र को, स्वर्ण आभा वाले भगवान वर्द्धमान को, तथा सद्देशना देने वाले शेष २२ तीर्थंकरों को तथा मुक्ताफल जैसी श्वेत कान्तिवाली, लोगों के मोहरूपी अन्धकार को नाश करने वाली, ज्ञान का प्रकाश फैलानेवाली सरस्वती देवी को स्मरण करते हैं । तत् पश्चात् पूर्ववर्ती ग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरि, पादलिप्तसूरि, बप्पहट्टिसूरि, श्री विजयसिंहसूरि, नवाङ्गीटीकाकार श्री अभयदेवसूरि, गुरु नेमिचन्द्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, हेमचन्द्रसूरि गुरु देवसूरि श्री हेमचन्द्रसूरि, कवि कालिदास, धनपाल, बाण आदि महाकविओं को हृदयपूर्वक स्मरण कर श्री अनन्तजिन चरित का ग्रन्थकार प्रारंभ करते हैं । " ग्रंथारम्भ में सज्जन और दुर्जन का विश्लेषण करते हुए कवि कहता है । सज्जन दुर्जन नहीं हो सकता और न ही दुर्जन सज्जन हो सकता है । दिवस रात्रि नहीं हो सकता और रात्रि दिवस नहीं हो सकती । सज्जन तो सज्जन ही होते हैं वे तो दोष युक्त काव्य में भी गुण ही देखते हैं । जो स्वभाव से ही वक्र होते हैं उनसे तो प्रार्थना करना निरर्थक ही है । मैं सरल स्वभावी सज्जनों से प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे पर अनुग्रह कर मेरे ग्रन्थ का संशोधन करें । ग्रन्थकार आगे कहते हैं मनुष्यभव की दुर्भलता बताने वाले चुल्लग आदि दस दृष्टान्त शास्त्र प्रसिद्ध हैं । दुर्लभ मानवभव आर्य क्षेत्र एवं उत्तमकुल प्राप्त कर मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 778