Book Title: Ananthnath Jina Chariyam
Author(s): Nemichandrasuri, Jitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 10
________________ को अपनी योग्यता के अनुसार गुरु का उपदेश सुनकर धर्मबुद्धि से उसका आचरण करना चाहिए । संसार में श्रेष्ठ धर्म यदि कोई है तो वह है ज्ञानदान । जैसे पदार्थ को देखने में आँखे, तिमिरावृतगृह को प्रकाशित करने में दीपक, एवं लोक के अन्धकार को दूर करने में सूर्य मुख्य है वैसे ही अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करने में ज्ञान प्रधान है । इसी ज्ञानदान की महत्ता प्रकट करने वाला मंगलकारी अनन्तजिन चरित्र पांच प्रस्तावों में कह रहा हूँ । हे भव्यों ! आप उसे मनोयोगपूर्वक सूनें (गा. : १-३५)। भगवान अनन्तजिन का प्रथम और द्वितीय भव - (गाथा : ३५-१२३६) __ धातकी खण्डद्वीप के पूर्वविदेह में ऐरावत विजय में अरिष्टपुर नामक रमणीय नगर था । वहाँ पद्मरथ नामका पराक्रमी राजा राज्य करता था । उसकी पद्मावती नाम की रानी थी । वह अत्यन्त रूपवती तथा सर्वगुण सम्पन्न थी । उसने एक भाग्यशाली पुत्र को जन्म दिया । राजा ने पुत्र जन्म की खुशी में सम्पूर्ण राज्य में जीवों को अभयदान की घोषणा की। दीन भिक्षकों को अन्न दान, गरीबों को धन दान, तथा अपराधियों को क्षमा दान प्रदान कर बड़े ही सांस्कृतिक ढंग से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया । बालक के देह की स्वर्णिम कान्ति इतनी दिव्य भव्य और मनोहर थी कि जो भी कोई देखता उसकी आँखें वही स्थिर हो जाती जैसे जादू कर दिया हो । उसके सौंदर्य से प्रभावित हो राजा ने बालक का नाम प्रतापरथ रखा । प्रतापरथ युवा हुआ। उसने सभी कलाओं में निपुणता प्राप्त की । एक बार प्रतापरथ अपने मित्रों के साथ वनश्री देखने के लिए बन में गया । वहाँ एक वृक्ष पर बैठे हुए शुक की दृष्टि कुमार पर पड़ी । कुमार के सौंदर्य से वह बड़ा प्रभावित हुआ । शुक ने अपने घोंसले में आकर सारिका से कहा - प्रिये ! मैने अरिष्टपुर नगर के राजा पद्मरथ के पुत्र प्रतापरथ के अद्भुत सौंदर्य को देखा । मानो साक्षात् कामदेव ही उपवन में उतर आया हो । ऐसा सुन्दर पराक्रमी राजकुमार जिस कन्या को प्राप्त हो वह सचमुच ही धन्य होगी । उस समय कमलपुर के राजा कमलकेशर की रानी कमलश्री से उत्पन्न राजकुमारी कमलावली अपनी सखियों के साथ उद्यानश्री को देख रही थी । उसने शुक सारिका का यह संवाद सुना । प्रतापरथ राजकुमार का सौंदर्य वर्णन सुनकर वह उस पर मुग्ध हो गई । उसने मन ही मन में उसे पति के रूप में स्वीकार कर लिया । घर आकर वह उसके वियोग में संतप्त रहने लगी । यहाँ तक की उसने खान, पान एवं शंगार भी छोड़ दिया । सखियों को इस बात का पता चला तो वे राजमाता के पास गई और बोली - आपकी पुत्री अरिष्टपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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