Book Title: Anandghan Chovisi
Author(s): Sahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 4
________________ प्रकाशकोय परम अवधूत योगिराज आनन्दघनजी रचित चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन एवं पदों का न केवल जैन अपितु भारतीय समाज में आज तक एक विशिष्ट स्थान रहा है। मुमुक्षु एवं साधकों के हृदय को झंकृत करने वाले और आत्मानुभूति की ओर बढाने वाले होने से मानस को भक्ति रस से आप्लावित कर देते हैं। भेद-विज्ञान को प्रदर्शित करने वाले एवं परंपरावाद से मुक्त होने के कारण ये स्तवन प्रभ से तन्मयता और देह से अनासक्ति भाव भी बढ़ाने वाले हैं। आनन्दघनजी के स्तवनों और पदों की भाषा को देखते हुए यह स्पष्टतः सिद्ध है कि ये राजस्थान प्रदेश के ही थे। परम्परागत श्रुति के अनुसार इनका आवास स्थान भक्तिमति मीरा की नगरी मेडता ही था। इनका काल अनुमानतः वि० १६५० से १७३१ के मध्य का है। इनका दीक्षा नाम लाभानन्द था अतः इनकी दीक्षा खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के कर-कमलों से ही हुई होगी। उनका स्वर्ग स्थान भी मेडता होने के कारण इनका चबूतरा और उपाश्रय भी मेडता में ही माना जाता रहा है। इनके चबूतरे को ही आधार मानकर आचार्य श्री विजयकलापूर्णसूरिजी महाराज मेडता में ही आनन्दघनजी का मंदिर बनवा रहे हैं, जिसका निर्माण कार्य अभी चल रहा है। परम्परावाद के दुराग्रह ने ही इनको अवधूत होने के लिये बाधित किया था। इसी का परिणाम था कि वे लाभानन्द न रह कर अंतमुखी बन गये और आनन्दघन के नाम से प्रसिद्ध हुवे। लाभानन्द से आनन्दघन बनकर ये महायोगी-गच्छातीत, परम्परातीत, संप्रदायातीत होकर मात्र आत्मधर्मी रह गये। इसी कारण इनके स्तवन आज प्रत्येक परंपरा द्वारा सादर समाहत एवं स्वीकृत हैं। इनकी चौबीसी पर तत्कालीन आचार्य ज्ञानविमलसूरि ने विक्रम सं० १७६९ में बालावबोध अर्थात् भाषा-टीका की थी। तत्पश्चात् मस्तयोगी ज्ञानसारजी ( समय १८०१ से १८९८) ने भी इस पर स्तबक ( भाषा टीका ) सं० १८६६ कृष्णगढ में लिखा। इन्हीं दोनों टीकाओं का आधार लेकर बीसवीं सदी के कर्णधार विद्वानों आचार्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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